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पत्र.क्र. ६०

*© श्रीधर संदेश*

*॥ श्री राम समर्थ ।।*

*काशीमें श्रीमत् प. प. सद्गुरु भगवान श्रीधरस्वामी महाराज का सौ. सावित्री भागवत को दिया हुआ दिव्य सन्देश*

मगू! श्रीगुरुनाथ को क्रोध आदि स्पर्श भी नहि कर सकते । उनको किसी भी प्राणी मात्र के ऊपर जादा कम प्रेम या उदासीनता आदि नहि रहती है। यदि शिष्योंको डराके कुछ कहते भी है तो उनके सारे विघ्न, आपत्ति दौर्बल्य, आदि को नष्ट करने के लिये ही कहते है। यदि कभी अपने ऊपर गुरुदेव उदासीन दीखते है तो वह उदासीनता अपने दुर्गुणों को नष्ट करने के लिये ही रहती है। जैसे सोनार सोने के खोट को निकाल कर उसको खरा बना देता है वैसे ही गुरुदेव जीवों के अन्दर का सारा नकली खोट निकाल कर जीवों को जीव भाव से हटाकर ब्रह्मरूप बना देते है । साधक को कभी भी अपने गुरुदेव रुष्ट, उदासीन हो गये हैं या हमारे ऊपर क्रोध करते है ऐसी क्षुद्र भावना बिल्कुल नहीं करनी चाहिये । *साधकों का नित्य, निर्विकार, परम शान्तिरूप, सच्चिदानन्दघन, मंगलमय, आत्मरूप ही सद्गुरु है।*

मगू ! देह का अस्वास्थ्य और मनका अस्वास्थ्य ये दोनों आत्मस्थिती को प्रमादित करने वाले हैं। महाभयानक जन्म-मृत्यु रूपी संसार की निवृत्ति के लिये जो *तुम ही आनन्दरूप परम तत्त्व हो*, ये जो मैंने उपदेश दिया था उसी में निष्ठा, तत्परायण रहो। इससे सर्वतोपरि दुःख – शोक, दौर्बल्य आदि की निवृत्ति हो जायेगी, और तुम आनन्दस्वरूपसे झलकोगी। ये रोग, वो रोग आदि सम्पूर्ण तुम्हारा भवरोग नष्ट हो जाय। मुन्नी ! आनन्दघन परब्रह्म रूप से रहो। विचार करके देखो ! दैव प्रारब्ध ये सब अज्ञान की कल्पना ही है । ज्ञान दृष्टि से द्वैत की कल्पना ही नहीं हुई, तुम अपना निज अविकार, अन्दर-बाहर एकाकार ,अपना स्वरूप हैं, उससे अन्य कुछ हुआ ही नहि ।

*इति*

*तेरी ही आत्मा*
*श्रीधर*

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