*© श्रीधर संदेश*
*श्री क्षेत्र काशी में श्री श्रीधरस्वामीजी महाराज का सौ. सावित्री भागवत को दिया हुआ दिव्य संदेश*
बेटी। तुम गुरु चरणों में एकरस हो जाओंगी तो फिर भिन्न भिन्न भावना बिल्कुल नहीं रहती है। जीवेश, माया, विद्या उनकी परम्परा का सारा प्रपंच गुरु के अन्दर न रहकर अहम् स्फूर्ति से भी रहित आनन्दघन, अद्वितीय, परमतत्व में ही एकरूप हो जाना चाहिये । बेटी, ऐसे ” बोधदाता” गुरु बिना दूसरा कोई नहीं है । पंच भौतिक हाड-मांस का पुतला चाहे दीर्घ काल तक रहे, चाहे आज ही चला जाय, इससे हम लोगों को कोई प्रयोजन नही है । प्रत्येक क्षण क्षण में आत्मनिष्ठा को बढ़ाते जाओ । यही मेरा तेरे ऊपर पूरा अनुग्रह है। गुरु नाम रुप की दृष्टि से शिष्य पर मोह ममता नहीं करता है। सिर्फ उसके कल्याण का ध्येय रहता है । वे अपनी अपनी आत्म दृष्टि से प्राणी मात्र को देखते है ।
अखंड आत्म स्थिति ही गुरु चरणों में ऐक्य कहलाती है। गुरु चरणों में तादात्म्यता ही गुरुभक्त्ति का श्रोत है । जैसे नदी में तरंग शान्त होने के बाद निश्चल हो जाती है, एक पानी ही अखंड रहता है वैसे ही नाना छिन्न-भिन्न भावनाओं को मिटाने के बाद केवल चेतन स्वरूप आत्मतत्व ही रहता है। इसके अन्दर शून्य, अज्ञान इत्यादियों की कल्पना भी रह नही सकती । शून्य अज्ञान आदि शब्द का उपयोग करे तो अभाव प्रगट होता है । अहं स्फूति लय होने के बाद स्फूर्ति रहित केवल आप ही रह जाता है। उसमें शून्यता या अज्ञान की कल्पना कहाँ सम्भव है ? स्वरूप का वर्णन ऐसा स्पष्ट है तो, शून्य अज्ञान, आदि शब्द का अर्थ ही निरर्थक है । एक ब्रह्माभिन्न आत्म स्वरूप अनुभव गम्य स्वत: सिद्ध है ।
स्फूर्ति स्मृति इत्यादि रूप से जो देहोऽहम गति में नाच रही है वह पंचक माया का आभास निकल जाने के बाद अथवा रहते हुये भी जो तुम्हारा नित्य, निज, निराभास, निर्विकल्प, स्वरूप है वह जैसे के तैसे ही रहता है।
मगू ! जन्म मरण, शोक – मोह आधि व्याधि, इत्यादि माया प्रपंच तुम्हे नहि है । स्वप्न दृष्य जागने के बाद जैसे मिथ्या हो जाता है वैसे ही यहाँ पर सारा व्यवहार मिथ्या है। यहाँ तक मिथ्या की सीमा है, कि उपासना-उपासक, गुरु-शिष्य, बन्ध- मोक्ष इत्यादि सब कुछ स्वप्न दृष्य के समान है । नित्य सच्चिदसुख स्वरूप की ज्ञानमयी ज्योति तुम्हारे हृदय में प्रज्वलित रहे । कुछ लोगों को न होने के बाद भी उपासना की तथा गुरु सेवा की वासना रह जाती है । उपास्य और गुरु अपनी आत्मा से अभिन्नता का दृढ़ निश्चय होने के बाद वह बाधक नही होता है ।
निरन्तर अपने हृदय में अभेदता का ज्ञान झलकता रहना चाहिये । आत्मसाक्षात्कार जो है ये अन्तर वृत्ति से ही होने वाला है। इसीलिये हृदय में जो वृत्तियाँ उठती है वह सब हृदय में ही रोक कर बार-बार उस वृत्ति का लय आत्मा में करने का अभ्यास निरन्तर करो । अपने स्वरूप का क्षणभर का प्रमाद भी महान हानिकारक है । याद रखो स्वरूप स्थिती में एक मिथ्या काल्पनिक बहिर्मुखता का आभास जो हुआ है वही जीव भाव का मूल कारण है । वृत्ति बाहरिक पदार्थों की आसक्ति रखकर चिद्जड उलझ गई है यहीं चिज्जड ग्रन्थि कहलाती है।
मगा ! कृपा रूपी यह ज्ञान की कैची हाथ में ले लो । ग्रन्थी कट जायेगी. दो टुकडा जब अलग अलग हो जायगा केवल चिज्जड में रह जाना यही सहज स्थिती है । पूर्ण स्थिती है. व्याप्त स्थिती है, आत्मस्थिती भी है । इसमें जीवेश्वर की कल्पना भी नहीं है । जीवभाव का भ्रम यहाँ नहि है । माया विद्या का नाम भी यहाँ नहि मिलता । ये केवल नित्य, शुद्ध, बुद्ध सच्चिदानन्द घन, स्वत: सिद्ध, स्वयं प्रकाश, आत्म स्वरूप ही रह जाता है । जैसे रज्जु के ऊपर सर्प भ्रम से भासता है सर्प न कभी था, न है, न होगा । ऐसी ही तुम्हारी निज स्वरूप स्थिती है । इति।
*तेरी ही प्रिय आत्मा*
*श्रीधर*