*© श्रीधर संदेश*
*प.प. भगवान स्वामीजींनी गुरुबंधु दत्तोपंत कमलापुरकर यांना पाठविलेले पत्र*
योगी ऋषी मुनी चिंतिताती मनी।
नमी निशीदिनी रामा त्या या।।१।।
मारुतीचा जगीं अवतार जो कां।
मृत्यूलोकी लोकां तारावया।।२।।
ज्याच्या कृपामात्रे अनेक तरलें।
वंदी ती पाऊलें समर्थांची।।३।।
मायापाशेदुःखें दत्तक दीधला
सद्गुरु लाभला मायबाप।।४।।
दत्तनामा तेणें गुरुपुत्र जो कां ।
असो त्या बालका आशीर्वाद।।५।।
वत्सा तुज लाभो ब्रह्मानंद शांति।
नासो मायाभ्रांति एकसरा।।६।।
निजधर्मापरी असता संसारी।
सर्वसुख घरी तुज लाभो।।७।।
तव पत्रान्वयें लिहीत उत्तर।
विचारोनी सार अवधारी।।८।।
कंटाळा मजला आला तुजवरी।
लिहिलेसी परी नोहे तेवी।।९।।
आत्मरूप ज्याला सर्व चराचर
अन्याचा विचार नाही त्यासी।।१०।।
कंटाळा तो काय तया कोणावरी
आळ हा त्यावरी कंटाळाया।।११।।
चिदानंदघन स्वरूप आपुलें।
कोण काय झालें कंटाळाया।।१२।।
व्हावयासी खेद कारण न कांही।
प्रसाद तो पाही धाडीयेला।।१३।।
अनन्या आधार कृपेचा सागर
करी भवपार भक्तालागी।।१४।।
रामकृपा होवो अज्ञान हे जावो।
विवेक उगवो अंतरांत।।१५।।
सकळ भासक चित्सूर्य अंतरी।
तेणेचि संसारी सर्व चालें।।१६।।
कळे सर्व ज्याने तोचि स्वप्रकाश।
नाहीं अवकाश निजी अन्या ।।१७।।
मी पणाच्या मागें जेका असे उगे।
तेचि जाण वेगें आत्मसुख।।१८।।
मन जेथे नुरे स्वरुप तें बारे।
अज्ञान काविरे नष्ट करी ||१९।।
जेवीं उजळित सूर्य चराचर।
स्वरूप संसार उजळीत।।२०।।
घटभंगे नभ जैसे होये एक।
तैशापरी देख असतांहि।।२१।।
देह नाशे जैसे स्वरूपचि उरे।
असतांहि बरे एकरुप।।२२।।
नसे अनुभवो अज्ञानाचा भावो।
अनुभवा ठावो निजीं नोहे ||२३।।
असकें स्वरूप सर्वदा एकलें।
घनदाट भलें ज्ञानरूप।।२४।।
ज्ञातृज्ञान ज्ञेय नसता त्रिपुटी
स्वरूपाची दिठी एकरुप।।२५।।
सर्व प्रकाशक स्वप्रकाश सार।
आपण निर्धार ठेवी सदा।।२६।।
आपणचि जरी अनुभव कोणाचा
अनुभवो अन्याचा,नसें निजी।।२७।।
असो, रामकृपे तुज व्हावो ज्ञान।
नासो हे अज्ञान स्वरूपाचे ॥२८।।
आत्मसौख्ये सर्व सुखी असो जग।
अज्ञान उद्वेग नष्ट होवो ||२९।।
पापताप भ्रांति रागद्वेगादिक।
नासोनिया लोक सुखी होवो ||३०।।
नीतिन्यायें वर्तो जीवमात्र जगी
कोणी न अभागी भूमी वसो।।३१।।
*इति शम्।*
*श्रीधर*