Letters

पत्र.क्र. ४३

*© श्रीधर संदेश*

*श्रीक्षेत्र काशी में श्रीमत् प. म. सद्गुरु भगवान श्री श्रीधरस्वामीजी महाराज का सौ. सावित्री भागवत को दिया हुआ दिव्यसंदेश!*

बेटी ! गुरु सच्चिदानन्दघन स्वरूप है। उस सच्चिदानन्दघन परमपद को शिष्यों के ऊपर दया कर देते हैं। गुरुनाथ को किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहि रहती है। जो देहाकार दृष्टि से मेरी आराधना करते हैं तथा सेवा में भी तत्पर रहते हैं ऐसे शिष्योंकी देहाकार दृष्टि से उपासना करने की प्रवृत्ति मुझको प्रिय नहि लगती ।

*गुरु की यथार्थ महिमा को जान कर गुरु केवल ब्रह्म का विग्रह है ‘ईश्वरो गुरुरात्मेति’ इस प्रकार की भावना से गुरु आराधना करना ही श्रेष्ठ है।*

मुन्नी । *ब्रह्मस्वरूप अहम् ब्रह्मास्मि इस स्फूर्ति का लक्ष्य स्वरूप है। इसी शुद्ध निस्फूर्तिक ब्रह्मस्वरूप को अहम् ब्रह्मास्मि इस स्फूर्ति से भी कोई प्रयोजन नहि हैं। फिर इसके आगे जो अव्यक्त महत्तत्त्व, अहंकार, ब्रह्माण्ड-पिण्डाण्ड ईश-जीव, माया-अविद्या इत्यादी नाना प्रकार की भावनाओं से क्या प्रयोजन है? अपना निज स्वरूप, नित्य ज्ञान रूप, निराभास, निस्सीम, निर्गुण, निर्विकार निराधार, निरातंक स्वानुभव गम्य है।*

प्रथमतः निशब्द ब्रह्ममें अहम् ब्रह्मास्मि इस स्मृति का आभास होना ही सृष्टि का आरम्भ होकर माया प्रपञ्च का जंजाल फैल गया है, इसी से स्वरूप की बिल्कुल विस्मृति हो गई है। जरा पुरुषार्थ करके आत्मा का आवरण हटा कर देखो, इससे तेरा कोई भी प्रयोजन नहि है । तुम शुद्ध आत्मस्वरूप में तद्रूप ही रहो ।
*इति ।*

*तेरीही आत्मा*
*श्रीधर*

home-last-sec-img