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पत्र.क्र. ४५

*© श्रीधर संदेश*

*श्रीक्षेत्र काशी में श्रीमत् प. म. सद्गुरु भगवान श्री श्रीधरस्वामीजी महाराज का सौ. सावित्री भागवत को दिया हुआ दिव्यसंदेश!*

*बेटी !* आत्मदृष्टीसे यहाँ किंचिन्मात्र भी भेद है ही नही। आत्मस्वरूप नित्य शुद्ध सच्चिदानंदघन है। तुम उस शुद्ध प्रकाशमय आत्मा को देह में मिलावो मत। देह की उपाधी अत्यंत तुच्छ और अपवित्र है। उस आत्मबुध्दी का निराकरण करके स्वस्वरुप में ही स्थित रहना चाहिए। *श्री गुरुदेव तुम्हारे आत्मस्वरूप में ही है। सदगुरु के चरणों में ही ऐक्य होना तो देहोंद्रियो की उपाधी को हटाकर ही हो सकता है। तुम्हारे आत्मस्वरूप सदगुरु को गौरव पूर्वक रखना हो तो गुरु की शुद्ध पवित्रता की महिमा समझकर उपासना करनी चाहिए।*
पवित्र आत्मभाव के बिना गुरुदेव को अपने अपवित्र देह के साथ स्पर्श नही करना चाहिए, उसमें भी स्त्री देह बडा ही अपवित्र माना गया है।

बबुआ ! देह की दृष्टि तो बहुत ही नीचे की बात है । आत्माका स्फुरण, देह का स्फुरण, जगत का स्फुरण याने अहं ब्रह्मास्मि, सर्वोहम्, विश्वरूपोऽहम्, देहोऽहम् इत्यादि सारी मन की चञ्चल वृत्तियाँ है। अज्ञान के सारे कार्यों का प्रकाशक, नित्य निश्चल, नित्य – निराभास, नित्य – निर्विकल्प, अपने चिद्धन रूप से स्वयमेव विराजने वाले अहं ब्रह्मास्मि इस स्फूर्तिक को भी अपने अन्दर आस्पद न देते हुये, यही सब श्रेष्ठ वस्तुभोंसें भी अन्य श्रेष्ठ असंगरूप,निरन्तर स्वयं प्रकाशरूप आनन्दघन आत्मस्वरूप है।

बेटी ! वृत्तिशून्य निर्विकल्प अपनी स्थितीमें न रहकर क्या क्षुद्र भावना करती हो । तुम ही देखो-जो भक्त, भक्त और भगवान के द्वैत भावसे उपासना करते है और भगवानकी सेवाभाव में लालाइत रहते हैं, भेद भक्तिमे विभोर हो जाते हैं, ऐसे भक्तों के लिए भगवान को उनकी इच्छा को पूरी करने के लिये भिन्न भिन्न लोगों की रचना करनी पड़ती है।

गुरु की उपासना निर्गुण, निराकार, निर्विकल्प रूप से करनी चाहिये । *’मै पन’* की स्फूर्ति से दूर, ज्ञानरूप स्वस्वरूप में वृत्तिका लय करना ही गुरुका ध्यान है, इसीको ब्रम्हैक्य कहते है, यही स्वरूपस्थिति है। ऐसी स्थितीमें रहना ही गुरुकी अखण्ड सेवा है।

बेटी! *मैं वृत्ति* के सामने ब्रह्माण्ड-पिण्डाण्ड, इसके अभिमानी जीव-ईश, मायाअविद्या, इत्यादि भाव सब अपने हृदय में स्वरूपस्थिति को ढकने वाले है । अपनी निजस्थिति में रहकर ही अखण्ड आनन्द को निरन्तर लूटने की जिसकी इच्छा हो उनको जीवेश आदि सारी चाञ्चल्य भावना को हटाकर, मैं केवल सच्चिदानन्द घन, ब्रह्मस्वरूप, ऐसी स्मृति निरन्तर साक्षीरूप से अपने में आप स्वयमेव चिन्मात्रस्वरूपसे रहना चाहिये । इति ।

*तुम्हारी ही आत्मा*
*श्रीधर*

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