Literature

शिक्षावल्ली १

*वर्णीका उच्चारण।*

शिक्षावल्ली में कुल बारह अनुवाक है। वेदोंका यथार्थ

उच्चारण करने के नियमों के उपदेशको ‘शिक्षा’ कहतें है । वेदके

षडङगोमें शिक्षा ही प्रथम अङग है । इस उपनिषदके प्रारंभमें ही

‘शीक्षां व्याख्यास्यामः ।’ हम प्रथम वेदोच्चारणविधिका विवरण

करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा की है । इसलिये इस वल्लीको ‘शिक्षावल्ली’

कहते है । संस्कृत भाषा बहुत नियमबद्ध है । संस्कृत भाषाके

शब्दोच्चरणमं यदि दोष हुआ तो उसका अर्थही विपरीत हो

जाता है । इलिये वर्णों का उच्चारण ठीक ठीक होना अत्यंत

आवश्यक जानकर यहाँ शिक्षा ही प्रथम कही गई । दन्त्य ‘स’ के

स्थान में बहुतेरे लोग तालव्य ‘श’ अथवा मूर्धन्य ‘ष’ का उच्चारण

करते है । अर्थके उपर ध्यान देकर बोलने का अभ्यास वे रखे तो

उनका उच्चारण सुधर जायगा । केवल अशुद्ध उच्चारणसे कितना अर्थका अनर्थ होता है वह आगामी कुछ उदाहरणोंसे स्पष्ट होगा।

जो महादेव, जगदीश्वर, सर्वेश्वर, विश्वनाथ इत्यादि नामोंसे प्रसिद्ध है, वह सर्वतोपरि विश्वका कल्याण कर, ब्रह्मसुख अर्थात्

आत्मसुखको देनेवाले होने के कारण उनको ‘शंकर’ कहते है ।

परंतु कोई कोई उच्चारणके ज्ञानसे अतिपवित्र प्रभुके उस परमपावन मंगल नामका भूल से ‘संकर’ ऐसा उच्चारण करते है ।

‘संकरो नरकायैव’ संकर तो रकका ही कारण होता है । कहाँ

शंकर और कहाँ संकर । ‘शं [सुखरूपं ब्रह्म] करोति

इति शंकरः शरणागतको सुखरूप ब्रह्म ही करदेते है, इसलिए

शिवजीको शंकर कहते है। ‘सकरः’ कहने से ‘कतवार’ ऐसा अर्थ

होता है । शंकराय नमः ऐसा ठीक उच्चारण हो तो उसका अर्थ

शंकरजीको अर्थात् शिवजीको नमस्कार है ऐसा होगा । संकराय

नमः कहे तो भावनाके विरुद्ध अधर्मरूप संकरको अथवा कतवारको ही नमस्कार किया जायगा । संमार्जनी शोधनी स्यात्

संकरोधकास्तथा, (इत्यपरः) संमार्जन और शोधनी झाडूको

कहते है । सकर: अथवा अवकर: ऐसा बतवारको कहते है ।

ऐसा ही ‘ शिव ‘ और ‘सिव’ इनका उच्चारण विभिन्न अर्थ

देनेवाला है । जहाँ महादेवजी का महत्वपूर्ण नाम आता है वहां

दन्त्य ‘स’ का उच्चार कभी नहीं करना । तालव्य ‘श’ का उच्चारही होना चाहिए । ठीक शिवाय नमः, कहने से निष्प्रपंच, सुख मात्र

ब्रह्मरूप, स्वप्रकाश शिवके उनके अव्दितीयताके कारण जीवका जो

उनके प्रति नमस्कार होता है वह भावारूप ही होता है। शिव

‘तत्’ पदवाच्य ईश्वर है । नम . ‘ स्त्वं ‘ पदवाच्य जीव है।

मायाविद्योपाधिओंके त्यागसे उन दोनोंका भी ऐक्य असिपदवाच्य

चतुर्थी विभक्तीके रूपमें अद्वितीय ब्रह्मरूपताके लक्ष्यमें किया जाता

हैं । आत्मानं परमात्मनिस्थापनं प्रम्ही भावः । परमात्मा में अपने को एक कर देना ही नमस्कार है । एकोहि रुद्रो न द्वितीयाय

तस्थुः सोऽहं भावो नमस्कारः । मै, मायाअविद्योपाधिक, कल्पित

मिथ्या ईश, जीव, जगदादि निखिल भेदभावनाओं को समूल छोडकर स्वरूपभूत सदैव एकरूप सच्चिदानंद ब्रह्मरूप शिवमें ही शुद्ध

जल में मिले शुद्ध जल के समान एकरूप हूँ ऐसा नमः शिवाय इस

महामंत्र का अर्थ होता है । मुमुक्षु जपके समय ऐसी ही

धारणा रखे।

अशुद्ध उच्चारणसे कैसा उलटा अर्थ होता है इसके पुष्टीके

लिए औरभी कुछ शब्दोंके उदाहरण लेकर देखेंगे । ‘सकृत्’ का

अर्थ एकबार ऐसा होता है । इस ‘स’ कारके स्थल में ‘श’ कारका

उच्चारण हो तो वहीं ‘सकृत्’ शब्द ‘शकृत्’ ऐसा बन एकबारके

अर्थ के बदले में विपरीत ‘विष्टा’ ऐसा अर्थ देगा । वैसेही ‘स्वजन’

का अर्थ सगेसंबंधी है । यदि ‘स्वजन’ का ही उच्चारण ‘श्वजन’

ऐसा किया जाय तो उसका अर्थ ‘कुत्ते’ ऐसा होगा । ‘सकलं’ का

अर्थ है सब । वही यदि ‘शकलं’ ऐसा उच्चारित हो तो उसका अर्थ ‘एक टुकडा’ हो ऐसा होता है। ‘व’ के स्थानमें ‘ब’ का

उच्चारण भी बहुत किया करते हैं । वह भी कैसा अनर्थकारक

होता हे यह अगले एकही शब्द के उदाहरणसे देखेंगे । चिकुरः

कुन्तलो वालः कचः केशः शिरोरुहः । (इत्यमरः) यह सब शब्द

एकार्थक ही है । इनमें से ‘वाल:’ शब्द लेंगे । वाल: कहनेसे बाल

ऐसा अर्थ हुवा । ‘वाल:’ के बदले में ‘बालः’ ऐसा उच्चारण हो

तो उसका अर्थ मूर्ख अथवा बालक ऐसा होगा । मूर्खेऽर्भकेऽपिवालःस्यात् । देखो ! केवल उच्चारणमें ही फरक होनेसे कितना

विरुध्द अर्थ हो जाता है ! सगे संबंधीयोंके क्षेमके लिये हवनादि

अनुष्ठान करते समय उच्चारणके अज्ञानसे ‘स्वजन’ के स्थलमें

श्वजन क्षेमाय ऐसा संकल्प हो तो उस काम्यकर्मसे उसकी इच्छा के विरुद्ध परिणाममें कुत्तोंका ही भला होगा और उसके सगे

संबंधी हाय हाय करते वैसे ही बिचारे दुखी रहेंगे । अशुद्ध उच्चारणसे अभिप्रेत अर्थ न निकलनेसे अभिष्ट सिद्धि नहीं होती । दीर्घ

मात्राके स्थलमें ऱ्हस्व मात्राका उच्चारण हो तब भी अर्थव्यत्यास

होता है। ‘सीता’ इस परमपुज्य मंगल नामके प्रथमाक्षरका उच्चारण

दीर्घ ही हो तो वह, सकल गुणमयी जगज्जननी वैदेहीका, भगवान्

परब्रह्म परमात्मा सच्चिदानंद श्रीरामको अर्धागरूपिणी अचिन्त्यमहिमाशालिनी आदिमायाका, उस नित्यमंगलमयी चिच्छक्तिका,

उस परमशांत निरवधि आनंदरूप भगवत्कृपाकाही बोध स्पष्ट

कराएगा । शद्वोच्चारण के अज्ञानसे यदि उस परमादरणीय पवित्र

नामके प्रथमाक्षरका उच्चारण ऱ्हस्व हो जाय तो ‘सिता’ शब्द

बनकर उसका अर्थ तुरंत ही बदला जायगा । ‘ शर्करा सिता’

शक्करको सिता कहते है । एक मात्राके व्यत्यायसे कितना ज्यादा

कम अर्थ होता है देखो! ऱ्हस्व ‘सुन’ कहनेसे · औरस पुत्र’ ऐसा

अर्थ होता है और दीर्घ सूत कहनसे उस ‘ब्राह्मण्यां क्षत्रियात् सूतः’ (अमर) ‘ संकरसे पैदा हुवा लडका ‘ ऐसा अर्थ होगा। ‘मूतस्त्वष्टरि सारथौ । रसः सूतश्च पारदे ।’ त्वष्टा (बढई) सारथि और पारद ऐसे भी ‘ सूत ‘ के अर्थ होते हैं । चाहे प्राकृत हो चाहे संस्कृत हो, शद्वों का उच्चरण ठीक सोचकर करें वैदिक कर्मों की तथा काम्य प्रतादिओं की भाषः तो बहुत ही शुद्ध चाहिये । वैदिक उपाध्याय, उपदेशक आदिओंकी तो भाषा अत्यंत शुद्ध होना आवश्यक है।

दुष्टः शब्द: स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह ।

स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोपराधात् ।।’

स्वर अथवा वर्ण के अशुद्ध उच्चारणसे शब्दोका स्वरूप दूषित

होता है । अयथार्थ प्रयोगसे दूषित हुए शब्द उद्दिष्ट अर्थबोधक बनकर यजमानके अभिष्टका उच्छेद करते है। उनसे अकल्पित विरुद्ध

फलकी ही प्राप्ति होती है । एकस्वरकी अशुद्धिसे वृत्रासुर इंद्रको

मारने के बदलेमे स्वयं इंद्रसेही मारा गया। काम्य हवनादि

अनुष्ठानमें किसी प्रकारके प्रमादसे भी तत्काल विरुद्ध फल होता है।

सर्वतोपरी प्रमादरहित अनुष्ठानसे इच्छापूर्ति होती है । अज्ञानसे

हुई चूक भूल भी यहाँ क्षम्य नहीं मानी जाती। इसलिए जहाँतक

हो सके सत्पात्र सम्यग्वेदवेदार्थविधिविधानवेत्ताओं द्वारा अति

दक्षतासे हो श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त अनुष्ठान किया जाय । प्रमादरहित

विधियुक्त, कर्मानुष्ठानसे ही अभीष्ट की प्राप्ति होती है। वेदशास्त्र और

संस्कृत भाषाका गौरव जितना अधिक रखा जाय, जितना उनका

विधियुक्त अध्ययन निष्ठासे भारतवर्ष में अधिक हो, वेदशास्त्रोचित

कर्म जितने अधिक दक्षतासे और विश्वाससे अनुष्ठानमें लाने के यहाँ

प्रबल प्रयत्न होंगे, उतना ही यह भारतवर्ष भगवत्कृपापात्र होकर

जगन्मौलीभूत होगा इसमें तनीक भी संशय नही है । ‘एकः शब्द:

सम्यग्ज्ञातः सुष्टु प्रयुक्तः स्वर्ग लोके च कामधुक् भवति ।’ भली

भौति विज्ञात हुवा एक ही शब्द यदि उत्कृष्ट रितीसे प्रयुक्त हो जाय

तो वह इह तथा परलोकमें भी अभिष्ट पूर्ण करता है । प्रवृत्ति तथा निवृत्तिमार्गजगदादि कालमें प्रथम सनक सनंदनादिकों की उत्पत्ति हुई ।

इनसे ही प्रथम निवृतिमार्ग प्रवृत्त हुवा । बादमें प्रवृत्तिधर्मके लिए

कश्यपादि न। प्रजापतिओं की सृष्टी हुई । इनसे प्रवृत्तिमार्ग बढा ।

ये दो मार्ग जगदादिसे ही मिलते आयें है । दोनों भी वेदविहीत है ।

निवृत्तिमार्ग अथवा संन्यास मोक्ष का साक्षात् साधन है; और प्रवृतिमार्ग अथवा गृहस्थाश्रम परंपरागत मोक्ष का साधन होता है । सृष्टिचक्रमें दोनोंकी भी आवश्यकता है। अनेक जन्मोपार्जित सत्साधनों की

संपूर्ण अंतिम सफलता ही निवृत्ति है।

‘अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति पर गतिम् ।’ (गीता ६।४५)

‘वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः । (गीता ७।१९)

अधिकारानुसार इन दो मार्गोका ग्रहण होता है। प्रवृत्तिमार्गकेही अधिकारी विश्वमें अधिक रहते हैं। उनके लिये आदर्श जीवनका पाठ इस उपनिषद के ग्यारहवें अनुवाकमें दिया है। इस शिक्षाके अनुसार यदि जीवन बिताएँ तो उससे ऐहिक पारलौकीक इति कर्तव्यता निश्चय ही सफल होगी । वैदिक गृहस्थाश्रमका नमुना यहाँ दिखाया है।

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