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शिक्षावल्ली २

*गृहस्थाश्रम, तथा उसके कर्तव्य*

वेदाध्ययन संपूर्ण होकर शिष्य घर लौटने समय, उसके अधिकारानुसार आचार्य गृहस्थाश्रमकी जो शिक्षा देते थे उसका स्पष्ट शब्दचित्र इस

अनुवाकमें है । गृहस्थाश्रमके कर्तव्य यहाँ दिये गये है । गृहस्थ जीवनका

मार्गदर्शन यहाँ किया है । विषयवासनायुक्त जीवोंको उससे छुडाने के लिये विधियुक्त गृहस्थाश्रमका शास्त्रोक्त पालन ही कहा है।

‘स्वकं कर्म परित्यज्य यदन्यत्कुरुते द्विजः ।

अज्ञानादथवा लोभात्स तेन पतितो भवेत् ॥’ (भगवद्गीता)

ब्राह्मण यदि अज्ञान अथवा मोहसेभी अपना कर्म छोडकर अन्यजातीका कर्म करने लगता है तो उसीसे वह पतित होता है। वर्णाश्रमोक्त

सत्कर्मानुष्ठान ही धर्मपालन है ।

सुखं वाच्छन्ति सर्वे हि तच्च धर्मसमुद्भवम् ।

तस्माद्धर्मः सदा कार्यः सर्ववर्णैः प्रयत्नतः ॥

जिस सुखको सब कोई चाहते हैं वह सुख धर्मावरणसे ही उत्पन्न होता है। अतः सब वर्णोंके लोगोंको चाहिए कि प्रयत्नपूर्वक अपने अपने धर्मका श्रद्धासे पालन करे । भारतवर्षका वैदिक धर्म है । वेदोक्त अर्थात् वेदविहितधर्म ही वैदिक धर्म है।

‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ्समाः ।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥ (ईशा.२)

सशास्त्रीय, स्वपरहितकारक, विधियुक्त, वैदिक तथा लौकिक निर्दुष्ट कर्म करते हुए, सौ वर्षतक जीनेकी इच्छा करें। विषयासक्तीसे छुटनेको इससे बढकर और कोई दूसरा मार्ग नही है । ऐहिक पारलौकिक हितकी, स्वपरउद्धारक, अविच्छिन्न दृष्टि रखकर, संगरहित निरहंकारसे किये कोई कर्म बाधक नहीं होते । संग छोडकर आत्मशुध्द्यर्थ ही किए जानेवाले कर्म बाधक नहीं होते । विधियुक्त, विहित, वैदिक कर्मानुष्ठानसे चित्तशुद्धि होती है । इससे क्रमेण विषयवासनानिवृत्ति होती है । विषयकी निःसारता अनुभवसे दृढ होनेके पश्चात् विरक्त होनेका मार्ग गृहस्थाश्रम है । प्रसंगोपात्त यहाँपर वेदोक्त सनातन धर्मतत्वोंका कुछ विचार करेंगे

यह यहांका विषय रहनेसे वेदाज्ञाओंका विचार इस अवसरपर करना समुचित ही होगा । आधुनिक जनसमुदायको इसकी आवश्यकता है ।

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः ।

एतच्चतुर्विव प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।। (मनु. २-१३)

( वेदस्मृतिसदाचारके अनुसार तथा तदनुरोधित आत्मतुष्टीके अनुसार

चलना ही धर्मपालन है।

श्रुतिः स्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्टन्हि मानवः ।

इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्यचानुत्तमं सुखम् ॥’ (मनु. २-९)

श्रुतिस्मृति प्रतिपादित धर्मानुष्ठान करनेसे इस लोकमें सत्कीर्ति और देहपात के अनंतर परमसुखरूप-ब्रह्मकी प्राप्ति होती है ।

वर्णाश्रधर्मक स्वरूप –

अखिल सनातन धर्मानुयायीओंके जीवनका अन्तर्भाव ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णोमे तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास इन चारों आश्रमोमें होता है। मानवजीवनका ही यह स्वाभाविक धर्म है। विधर्मियोंमें भी किसी न किसी रूपसे वर्णाश्रम चलते ही है। हमारे धर्ममें उसको व्यवस्थित रूप दिया है । इह पर गतिके लिए कहा हुवा

भगवत्प्रणीत धर्मही सनातन धर्म है । जगदुत्पत्तीसे यह चला आ रहा

है । इसी लिए इसके सब तत्व सुसंबद्ध और निश्चित इहपर-कल्याण साधक है । अग्रज ब्राह्मण वर्णसे लेकर अन्त्यजतक की सुविधाके लिए सुखी जीवन के लिए, समाज व्यवस्थाके लिए, पूर्वजन्मसंस्कार देखकर किया हुवा भगवत्कृत श्रमविभाग ही वैदिक वर्णविभाग है । अपने अपने अधिकार प्राप्त वर्ण तथा आश्रमके अनुसार चलकर, कार्मोपासनद्वारा अन्तमें ज्ञानसे ब्रह्मैक्य संपादित करना ही वेदोक्त धर्म है। चार आश्रमोंमें भोगसे मोक्षतक के सब सुखसाधनोंका अन्तर्भाव हुवा है। मानवजीवन सफल करनेके लिए ऐसा करो और ऐसा मत करो’ इस तरहका विधायक उपदेश करके सदाचरणमें प्रवृत्त करनेवाला सनातन धर्म है । ‘ चोदना

लक्षणार्थो धर्म:।’ (जैमिनि)  ऐहिक और पारलौकिक सुख के लिए,

श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त, आचार्यसंमत, विधिनिषेधोंका पालन धर्माचरण है।

जिन वेदस्मृतिसदाचारसंमत नियमोंके पालनसे इहपर कल्याण होता है,

उन यथार्थ भगवत्प्रणीत नियमोंको धर्म बतलाता है। धर्मशास्त्रमें विधिनिषेधरूपसे कर्तव्य अकर्तव्यका निर्णय रहता है ।

यःशास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।(गीता १६-२३)

जो शास्त्रनियमोंका उल्लंघन कर स्वच्छंदचारी विषयासक्त बनता

है, न वह सिद्धाको प्रात्त होता है, न उसको परमगतिका लाभ होता

है, न वह सुख संपादित करता है।

‘ तस्माच्छास्त्रं प्रमाणन्ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।। (गीता १६-२४)

इससे हे अर्जुन ! ‘तेरे लिए कर्तव्य और अर्कतव्य के विषयमें एक शास्त्र ही प्रमाण है। उस शास्त्रविधिको जानकर शास्त्रविधानोक्त कर्म करना ही तेरा स्वधर्म है ।’ वर्णाश्रमोंके अनुसार शास्त्रोक्त स्वकर्तव्यका

परिपालन करना धर्म कहलाता है ।

‘स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्योऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥’ (गीता २।३१-३२)

इत्यादि वचनोंसे श्रीभगवद्गीता को वर्णव्यवस्था मान्य थी यह स्पष्ट

होता है।

‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विंदति तच्छुणु

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विंदति मानवः।। (गीता १८-४५-४६)

इत्यादि वचन वर्णाश्रम कर्मोंकी ही पुष्टि करते हैं । वर्णाश्रम प्राप्त

कर्मोका अनुष्ठान ही धर्मपालन, समाजकी स्थिति रक्षा और परमात्माकी

आराधना है।

धर्म शब्द का व्यापकत्व-

किसी भाषामें धर्मके समानार्थक शब्द नहीं है। धर्म शब्द बहुत

व्यापक है । समाजधर्म, व्यक्तिधर्म, स्त्रीधर्म, पुरुषधर्म, वर्णधर्म, आश्रमधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, पिताधर्म, माताधर्म, पुत्रधर्म, कन्याधर्म, मित्रधर्म, बंधुधर्म, भगिनीधर्म, स्वामीधर्म, सेवकधर्म, राजधर्म, प्रजाधर्म, गुरु शिष्यधर्म, देहधर्म, अवस्थाधर्म, पदार्थधर्म, प्रवृत्तिधर्म, निवृत्तिधर्म, संसारधर्म, मोक्षधर्म, इत्यादि बहुत कुछ भाव धर्मशब्द समाविष्ट होते हैं । ईश्वरभक्तिका भी अन्तर्भाव इस धर्मशब्दमे ही होता हैं । ब्रह्मनिष्ठ अर्थात् आत्मनिष्ठ रहना भी धर्म कहलाता है।

स्वप्रणीत नियमोंके पालनद्वारा जीवोंको संपूर्ण विषयवासनाओंसे

निर्मुक्त करना और निर्विषय आत्मसुखकी अभिरुचि क्षणक्षण बढाते रहना वैदिक धर्मका मुख्य ध्येय है । प्राणिमात्रका मुख्य धर्म तो स्वरूपके दृढ़निश्चयसे रहना ही है। ईश्वरानुग्रहादेव पुंसामद्वैत वासना ।’

भगवानके अनुग्रहसे ही इहपर कल्याण तथा अद्वैतनिष्ठा पूर्णतया संपादित होती है । इस लिए भगवानकी पूर्णकृपा प्राप्त्यर्थ उसकी आराधना करना भी स्वहितचिकीषुका धर्म ही है ।

‘श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे यस्ते उल्लंघ्य वर्तते ।

आज्ञाछेदी ममद्वेषी स मद्भक्तो न मे प्रियः ॥’

श्रुतिस्मृतीयाँ भगवान की ही आज्ञाएँ रहनेसे, और तदुक्त आज्ञापालनसे ही भगवत्कृपा संपादित होनेसे, श्रुतिस्मृत्युदित कर्मानुष्ठान भी धर्म ही कहलाता है । ‘ चातुर्वण्यं मया सृष्टं । ‘ चातुर्वर्ण, समाजके सुस्थिति के लिए पूर्व संस्कारदृष्ट, भवतत्सृष्ट ही रहनेसे, उनके उद्देशानुसार

चलना भी कर्तव्यरूपसे तथा सहज स्वाभाविकतासे, धर्म ही है ।

भगवाननें विभिन्न जातिओंके कर्म, उन उन द्वारा करानेके उद्देशसे ही पृथक् पृथक् जातीमें उनको जन्म दिया हुआ रहता है । तो समदृष्टीसे प्रतिमनुष्यको अपने अपने वर्ण-धर्मानुसार चलना भी परमात्माका वह उद्देश पूर्ण करना है। भगवानकी कृपा संपादन करनेके लिए उनके उद्देशानुसार चलना भी एक प्रधान हेतु, प्रधान कर्तव्य अथवा प्रधान धर्म है।

निष्कामकर्म

‘न देवानां प्रतिव्रतं शतात्मा च न जीवति ।’ ऋग्वेद १०।३३।९

देवताओंके नियमोंको तोडकर कोई सौ वर्ष जीवित नहीं रह सकता।

‘ स्वामी तुष्टः सर्वसौख्यं ददाति ।’ विश्वनियामक भगवान् प्रसन्न

होनेपर वह बहुत ही उदार होनेसे, बिना मांगे ही सकल सौख्य देते हैं, तो उन भक्तवत्सल भक्तकामकल्पद्रुम सर्वेश्वर और सर्वज्ञ परमात्मा के पास मांगनेकी क्या आवश्यकता है? निष्काम कर्म करना ही भगवानको यथार्थ रूपसे जानना और उनकी प्रेमसे सेवा करना है।

आदरेण यथा स्तौति धनवन्त धनेच्छया ।

तथा चेद्विश्वकर्तारं को न मुच्येत बंधनात् । ( वराहोपनि )

धनके लिए धनीकी जितने आदरसे स्तुति की जाति है, उतने ही आदरसे यदि हृदयपूर्वक परमात्माकी अनन्य स्तुति की जाय तो सब बंधनोंसे कौन मुक्त नहीं होगा ? याचना भी करनी हो तो परमात्मासे ही करें । यथार्थ विचार किया जाय तो मांगना भी परमात्माका ही संकल्प पूर्ण करना है। स्वपर जनता परमात्माकी ही है, उनका पोषणभी वह करता है । तो उनके लिये भगवानसे मांगना अर्थात् स्वामीसे पैसे मांगकर उसके घर के लिए ही खर्च करना है । यहाँ यह सब परमात्माका ही है, उनका काम वही सबके कर्मद्वारा चलाते हैं। अपने देहका पोषण भी वही करता है । वही एक सर्वत्र व्यापक है इस पारमार्थिक दृष्टीसे स्वपर सुखके लिए, जीवनके लिए फलासक्तियुक्त कर्म करना भी निष्काम कर्म है । अगले जन्मका संकल्प रखकर, अथवा स्वर्गादि लोकके सुखकी कल्पना मनमें रखकर किए कर्म ही काम्यकर्म है । ऐहिक स्वपर सुखजीवनके शास्त्रसंमत तात्कालिक काम्यकर्म भी करें, तो भी संकल्पानुसार उसका फल यहीं मिलकर वह पुनर्जन्मका कारण नहीं होता ।

‘ इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।’

(केन. २।५।)

‘ इह चेदशक्दोध्द प्राक्शरीरस्य विस्रसः ।

ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥’ ( काठ. २।३।४ )

इन उपनिषद वाक्योंसे पुनर्जन्म की अभिलाषा न रख, इस जन्ममेंही आत्मज्ञानसे कृतकृत्य होकर, स्वपर सुखके लिए यावज्जीव आग्रहपुरःसर वर्णाश्रमोक्त, यथाशास्त्र कर्म करते रहना ही मानवधर्म है और ईश्वरभक्ति है । ‘ स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विंदति मानवः ।’ ‘यज्ञार्थात् कर्मणोन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः । तदर्थ कर्म कौंतेय मुक्तसंगः समाचर ॥ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गंतव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना । लोक संग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥’

इत्यादि भगवद् आज्ञाओंका यह सार है ।

निर्विषयसुखप्राप्तीमे भक्तियोगकी तीव्र आवश्यकता.

अकामः सर्व कामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।

तीव्रेण भक्तियोगेन भजेत पुरुषं परम् ॥’

सर्वकामवियुक्त रहे अथवा सर्वकामसंयुक्त रहे, वा केवल एक मोक्षकामसे ही संपन्न रहे, कैसा भी हो, सबको ही तीव्र भक्तियोगसे परम पुरुषका भजन करना अत्यंत आवश्यक है । ‘ तस्य ते भक्तिवांसः स्याम । (अथर्व ६।७९।३) हे प्रभो ! हम तेरे सदा ही भक्त होकर रहें, ऐसी वेदमें प्रार्थना है । ‘ स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।

अहैतुक्य-प्रतिहता ययात्मा सम्प्रसीदति ॥ ‘ जिस भक्तिसे परमात्मा सुप्रसन्न होते हैं ऐसी अविच्छिन्न निष्कामभक्ति परमात्मामें रखना ही प्राणिओंका परमधर्म है

‘येदाराऽऽगारपुत्राप्तान्प्राणान्वित्तमिमं परम् ।

हित्वा मां शरणं याताःकथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे ।।’

जो स्त्री, घरबार, पुत्र, आप्तजन, सुखसंपत्ति सब कुछ छोड, प्राण की भी परवा न रख, मेरे ही एक शरणमें आते है उनको छोड देनेको मेरा मन कैसा उद्यत होगा?

‘वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।

जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥’ ( श्रीमद्भागवत )

वासुदेवमें परमप्रेमरूप भक्ति रखनेसे भवमोक्षकारक ज्ञानवैराग्यकी अर्थात् निर्विषय सुखकी अचिरादेव प्राप्ति होती है।

धर्मपालनविना निर्विषय सुख अशक्य

विषयसुख अर्थात् इंद्रियसुख सब योनियोंमें समान है । सब योनियोंमें इंद्रियां है और उनका सुख भी है । इंद्रियसुख स्वर्गके देवताओंसे लेकर नरकके कृमिकीट तक एक ही है । निर्विषय सुखकी प्राप्ति कर लेना यह ही एक मनुष्य देहका वैशिष्टय है।

‘सुखं न विना धर्मात्तस्माद्धर्मपरो भवेत् ।’ धर्मपालनके

विना निर्विषय सुख ही नहीं मिल सकता, इसलिये धर्मपर निर्भर रहे।

अधिकारी भेदसे, ‘धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते ? ।’

संपत्तिका लाभ और कामपूर्ति भी धर्माचरणसे होती है । तो ऐसे धर्मका सेवन क्यों न करे ?। बिना नरकके, चाहे सो, धर्मपालनसे प्राप्त हो सकता है।

‘स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा हरितोषणात् ।

साधनं प्रभवेत्पुसां वैराग्यादि चतुष्टयम् ॥

(वराहोपनिषद)

स्व स्व वर्णाश्रमधर्माचरणरूप तपस्याके द्वारा, परमात्माको संतुष्ट करनेसे, भगवत्कृपामूलक, नित्यानित्यवस्तुविवेक, इहामुत्र फलभोग विराग, शमादि षट्कमुमुक्षुत्व इस साधन चतुष्टय संपत्तिका लाभ होकर मनुष्यमात्रका अपनेआप उद्धार होता है।

‘धारणाद्धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः ।

यत्स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।

(महाभारत)

भूतमात्रका धारण (रक्षण, पोषण) करनेसे धर्म कहलाता है। धर्म प्रजाका रक्षण तथा पोषण करता है । शारीरिक और आत्मीय सुख भी देता है। जिससे इहपर उन्नति, रक्षण और पोषण होता है, वही धर्म है, ऐसी ‘धर्म’ की व्याख्या की गई है ।

कर्माकर्म विवेक

‘न जातु कामान भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः।

धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्वे जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ।।

(महाभारत)

कचित् कदाचित भी कामवश हो भिन्न वर्णकी स्त्रीसे विवाह कर स्वधर्मत्याग न करें। भयसे वा किसी वैभव के वा मोहसे भी धर्मत्याग न होना चाहिए । अधिक क्या कहे ? प्राणहानीके खतरेमें भी धर्मत्याग न कर किसी अन्य उपायसे आत्मरक्षा कर लें। धर्मपालन की शक्ति ही परमात्मा है। उससे निश्चित संरक्षण होगा। इस लोक और परलोकमें भी धर्मसे रक्षण होनेके कारण धर्म नित्य है । सुख और दुःख, विषय की हानी तथा लाभ अनित्य है । वासनानुसार अनेक जन्म पानेवाला जीव नित्य है और उसके जन्मकी तथा बंधन की कारण होनेवाली वासना, अज्ञानादि अनित्य है । ‘वासना प्रक्षयो मोक्षः।’

(आध्यात्मोपनि.) वासनाक्षय ही मोक्ष है । मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति

न ग्रामान्तरमेव वा ।’ ‘अज्ञानहृदयग्रन्थीनाशो मोक्ष इति स्मृतः।

अज्ञानरूप हृदयग्रंथीका नाश ही मोक्ष है ।

जीवन, भग्नभांडस्थ जलयत् अस्थिर है । तरंगकी तरह लक्ष्मी चंचल है। उन्मत्तके (पागलके) क्षणिक हर्षशोक सदृश यहाँ के

सुखदुःख केवल भ्रान्तिसिद्ध ही है । पारिजात पुष्पके समान अत्यल्पकालिक यौवनावस्था है । सर्पमुखगत मंडूकवत् देह मृत्युवश है । जो मरणोत्तर भी साथ रहता है वह धर्म ही एक शाश्वत साथी है शेष सब

जहाँ का तहाँ ही रह जाता है ।

‘मृत शरीरमृत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।

विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ॥’ (मनु),

लकडी या मट्टीके ढेलेके समान मृतशरीरको छोडकर सब आप्तेष्टवर्ग

घर लौटता है, एक धर्म ही जीवके साथ जाता हैं ।

तस्माद्धर्म सहायार्थ नित्यं संचिनुयाच्छनैः ।

धर्मेणहि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम् ।। (मनु.)

इसलिये जहाँतक हो, धीरे धीरे धर्मकाही सहाय संपादन करनेकी

चेष्टा करते रहें। सभी समय सहाय करनेवाले धर्मसे ही सब शोकमोहान्धकार नष्ट हो जाता है । धर्मरक्षण ही आत्मरक्षण है और धर्मनाश ही आत्मनाश है । ‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।

तस्माद्धर्म न त्यजामि मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।’ धर्म स्वयं हत

होनेसे हनन करनेवाला और स्वयं रक्षित होनेसे रक्षण करनेवाला है

हमारेसे हत हुवा धर्म कही हमारा ही वध न करे इस भयसे मैं धर्मका

त्याग नहीं करता, ऐसा एक श्लोक महाभारतमें हैं। (वनपर्व) धर्मके

पालनसे अत्रपरत्र भी कुछ हानि नहीं होती।

‘यतोऽभ्युदय निश्रेयसः सिद्धिः स धर्मः ।

(श्रीमत् शंकराचार्य)

जिससे ऐहिक वैभव, आयुरारोग्य, सत्कीर्ति, यशप्रताप इत्यादि का जीवनकालमें लाभ होकर अन्तमे उत्तम गति ब्रह्मसायुज्य प्राप्त होता है वही धर्म है । शरीरका रक्षण धर्मके लिए, धर्मका रक्षण ज्ञानके लिये और ज्ञानका रक्षण मोक्षके लिए करना चाहिए ।

‘गुरूणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधिः

उदहेच्च द्विजो भार्यां सवर्णा लक्षणान्विताम् ॥’

‘अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणांतिकः ।

एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपतयो परः।’

सवर्ण विवाहकी ही आज्ञा है। यावदायु पतिपत्नीमें परस्पर

अव्यभिचारयुक्त प्रेमका आचरण रहे । एकदेहन्यायसे रहना यही पतिपत्नीओंका श्रेष्ठ धर्म, सारांशरूपमें, मुख्य जानना चाहिए । एक देहके

ही दक्षिण वाम भाग पतिपत्नी है। ‘अर्धो वा एष आत्मनो

यत्पत्नी।’ पुरुषका अर्धांग ही पत्नी है ऐसी श्रुति है । इसी लिए

स्रीको अर्धांगी कहते हैं । पतिपत्नीमें एकदेहन्याय और परस्पर अव्यभिचार ये सहज धर्म है । ‘सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भार्त्राभार्या तथैव

च । यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥’ जिस कुलमें

पतिपत्नी प्रेमसे परस्पर सानुकुल और परस्पर संतुष्ट रहते हैं, उस

कुलमें निश्चय ही नित्य मंगल, नित्य सुख और नित्य कल्याण रहता

है। ‘अदुष्टाऽपतितां भार्या यौवने यः परित्यजेत् । स जीवनान्ते

स्त्रीत्वं च वंध्यत्वं च समाप्नुयात् ।। जो अदृष्ट और अपतित

भार्याको यौवन में त्याग देता है, वह देहपातके अनंतर दुसरे जन्ममें

स्त्री होकर उसको वंध्यत्व प्राप्त होता है । ‘ अनुकूलकलत्रो यः स्वर्गस्तस्य इहैव हि। प्रतिकूल कलत्रस्य नरको नात्र संशयः ।।’ सर्वथा अनुकूल भार्या रही तो उस पतीका यही स्वर्ग है और यदि भार्या प्रतिकूल हो रही तो उस पतीका यही नरक है । ‘व्यभिचारात्तु

भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् । श्रुभालयोनि प्राप्नोति

पापरोगैश्च पीड्यते ।।’ पतिसे वंचनाकर परपुरुष भोगसे स्त्रीका लोकनिन्दित, सज्जनबहिष्कृत, लज्जास्पदजीवन होता है, अशान्ति बढती है, समाधान नष्ट हो जाता है। प्रतिदिन व्यभिचारसे कामदाह बढता ही

जाकर असह्य दुखदायी होता है । यह व्यभिचारके पापका तत्काल फल

है । अपकीर्तिही मनुष्यप्राणिका मरण है । व्यभिचारपापको इसलोकमें

इस प्रकार मृत्युदंड शीघ्र ही मिलता है । दैन्य जीवन, रोगदुःख और

अति दुखदायी मृत्यु यह इस लोककी शिक्षा पाकर देहपातादनंतर मिली

हुई नरकयातनासे शृगालादि नीच योनियों पाकर, गलितकुष्टादि रोगपीडित चांडालीके जन्मको यह स्त्री प्राप्त होती है। छिपके भी व्यभिचार हो तब भी वह अधिक दिन छिपा नही रहता । ‘अत्युत्कटैः पुण्यपापैरित्र फलमश्नुते । त्रिर्भिवर्षै  त्रिभिमासैस्त्रिभिर्पतैस्त्रिभिर्दिनैः ।।

अत्युत्कट पुण्यपापोंका इस लोकमें ही शीघ्र फल मिलता है । बहोत हुवा

तो वर्षत्रय, मासत्रय, पक्षत्रय और दिनत्रय उसकी अवधि कही गई है।

पतिसे गर्भधारणा हो तो उस पतिव्रता सुवासिन का उत्सव मनाते है

और गर्भवति विधवाको देखकर लोक थूकते है। एक ही क्रिया अपने

युक्तायुक्ततासे इतनी भूषणास्पद और निंद्य होती है।

‘पुमांसं दाहयेत्पापं शयने तप्तश्रायसे ।

अभ्यादघ्युश्च काष्ठानि तत्र दह्येत पापकृत् । (म. ३७२)’ राजा, अनंतर उस जारपुरुषको-उस पापीको जलते हुए तप्तलोहके शय्यापर सुलाकर जला दे। जबतक यह पूर्ण जल न जाएँ तबतक उस स्त्रीके पतीके घरके लोग और पति उसके ऊपर काष्ट डाले।’ हमारे धर्ममें व्यभिचरित स्त्रीपुरुषोंके लिए ऐसी शिक्षा है। व्यभिचार छिपा भी रहे तो भी स्वाभाविक ही परस्पर

प्रेम नही रहता । पतिपत्नीका परस्पर प्रेम नष्ट हुवा तो कौटुंबिक जीवन ही नष्ट हो जाता है। पतिपत्नी में विद्रोह बढता जाकर अन्तमें

परस्पर हत्या करने तक प्रसंग आता है और राजदण्ड पाकर दोनों

कुलकी अपकीर्ति होती है। जिस कुलमें व्यभिचारी स्त्री निर्माण होती

है उसके मातगृह तथा श्वशुरगृहके सब लोगोंके मुखका तेज ही नष्ट

हो जाता है। यह नियम पुरुषोंके लिए भी हैं, पाप पुण्यके लिए

पति और पत्नी समान उत्तरदाता है। व्यभिचारसे निर्माण हुई संतति

किसके नामसे पिंडदान देगी ? किसका वंश वह माना जायगा ? व्यभिचारसे कुलनाश होता है । प्रत्येक कुल की, प्रत्येक जाति की एक

विशिष्टता रहती है और उस विशेषताके सहाय का लाभ देशको होता

है। यह लाभ व्यभिचारसे नष्ट होकर देशकी अवनति तथा धर्मका

ऱ्हास होता है और प्रजाभी दुर्बल बनती है। ‘संकरो नरकायैव

कुलघ्नानां कुलस्य च। पतंति पितरो ह्येषां लुप्तपिंडोदकक्रियाः॥’

वह वर्णसंकर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही

होता है। लुप्तपिंडदानसे पितृवर्गभी दुःखी और पतित होता है।

‘दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः । उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ इन वर्णसंकरकारक दोषोंसे कुलघातियोंके सनातन

कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं । ‘उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्नम ॥

नष्ट हुए कुलधर्मवाले मनुष्योंका अनन्त कालतक नरकमें वास होता है।

गर्भपात अर्थात भृणहत्या ये इससेभी बढकर महापातक है।

‘सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या पतिव्रता । सा भार्या

या पतिप्राणा सा भार्या या प्रजावती ॥’ वही भार्या है जो गृहकार्यमें दक्ष रहती है। वही भार्या है जो पतिके इच्छाके अनुसार चलती है। वही भार्या है जिसमें पतिको संतुष्ट रखनेको व्रत धारण किया है। वहीं भार्या है जो पतिको प्राणप्रिय है। वही भार्या है जो की पुत्रवती होकर पत्नीत्य का नाता पूर्ण करती है। ‘विशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः । उपचर्यः स्त्रिवा साध्व्या सततं देववत्पतिः ।

यदि पति सदाचार शून्य ही रहे, कामी रहे, विद्यादि गुणहीन रहे,

दरिद्री भी हो तब भी साध्वी स्त्री उसकी सेवा अनन्यभावनसे करें। पतिको

देवतुल्य माने । ‘दरिद्रं व्यथितं चैव भर्तारं याऽवमन्यते । शुनी ग्रधरी् च मकरी जायते सा पुनः पुनः ।’ दीन, दुखी, दरिद्रि पतिको देखकर जो तीक्ष्ण कठोर भाषणसे या आज्ञाउल्लंघनसे या किसी अन्य रीतीसे अवमानित करती है वह कुत्ती, गीधडी, मकरी होकर पुनः पुनः उसी जन्म को पाती है।

‘बालया या युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता। न स्वातंत्रेण कर्तव्यं किंचित्कार्य गृहेष्वपि ।।’ स्त्री अपने बाल्य, तारुण्य,

वृद्धाप्पमें ही विना पतिके अनुमोदन स्वातंत्र्यसे कुछ भी न करे ।

बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठत्पाणिग्राहस्य यौवने । पुत्राणां भर्तरिप्रेते न

भजेत्स्त्री स्वतंत्रताम् ।।’ स्त्री विवाह के पूर्व मातापिताके वशमें, यौवनावस्था पतिके वशमें, पति मृत होनेपर पुत्रके वशमें रहे । कभी भी

रक्षकके बिना स्त्री स्वतंत्रतासे न रहे । ‘पित्रा भर्वा सुतैर्वापि नेच्छोद्विरहमात्मनः । एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुमे कुले !!

स्त्री पिता, पति और पुत्र इनसे विलग न रहे। इनके वियोगमें पितृपतिकुलमे स्त्रीसे निंदित आचरण होनेकी संभावना है। ‘सदा प्रहृष्टया

भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया । सुसंस्कृतोपस्करया व्ययेचामुक्तहस्तया ।।’ सती, सास, ससरा, नणंद, देवर आदि कोई भी विरुद्ध हो इतनाही नहीं किन्तु स्वयं पति भी विरुद्ध हो तो भी अपना कर्तव्य ईश्वराराधन बुद्धि करते हुए अपने सदाचरण और कर्तव्यपालनके संतोषसे सदा ही प्रसन्नवदन रहे । किसीको भी दुःख न हो ऐसे शास्त्रीमार्गसे चलकर सदैव शांत रहे । सबकी यथोक्त सेवा करें। गृहकार्य चतुरतासे अवलंबित करें। सबसे विनययुक्त मृदुमधुर वचन बोले । देशकाल, व्यक्ति और अवश्यकता इनके ऊपर ध्यान देकर सबसे विहित हितकारी आचरण रखे । गृह, वस्त्र, पात्र तथा पुत्रादि इनको स्वच्छ और पवित्र रखे । युक्तस्थलपर उन उन वस्तुओंकी नेत्रानंदकर रचनाके साथ व्यवस्थित रूपसे रखे । कोई भी पदार्थ के सुरक्षितताके लिए जो कुछ करना हो सो निरलस होकर सकालमें ही करे । कोई भी वस्तु नष्ट तथा खराब न हो ऐसे दक्षतासे सब तरह देखते रहे । प्राप्तिसे अधिक खर्च कर

कर्जाके बोझसे पति दीन हो ऐसा कभी न करे । अपने लिए किसी

पदार्थका हट न करे । समयोचित आचरण रखे । प्राप्तिसे खर्च कम ही

रख कर युक्तिसे महिनेके महिनेको कुछ तो भी द्रव्य आपत्कालके लिए

बचाएँ । आवश्यकता देखकर अनुकूलता के प्रकार समय समयमें युक्त

खर्च करे। प्रसंग प्रसंगमें पतिके संमतिसे अथवा पतिके साथ संचित

धनमेंसे विधियुक्त दानधर्म करे । यथाशक्ति दानसे परमात्मा संतुष्ट होता

है। जो कुछ करना हो सो श्रद्धा, प्रेम और उत्साहके साथ पतिके

सहित करे। उसको शास्त्रकी और सज्जनोंकी संमति रहे । उस कर्मसे

वृद्धजन संतुष्ट हो । शुद्धि और पवित्र आचरण, स्वकर्तव्य पालन, आपत्कालमें धैर्य, सहनशीलता, विनय, शांति, मृदुमधुरभाषण, सदा प्रसन्नता, श्रीगुरु और परमात्मामें अनन्यभक्ति, ज्ञानविचार, विरक्ति, प्रतिदिन आत्माकार वृत्ति करनेका अर्थात् निर्विकल्पका कुछ देरतक अभ्यास ये सब कल्पतरुतुल्य सुखमय सफल जीवन बनाते है।

‘पतिव्रता निराहारा शोष्यते प्रोषिते पतौ। मृतं भर्तारमादाय ब्राह्मणी वन्हिमाविशेत् ।।’ (व्यासस्मृति २-५२) पति कही बाहरगाँवको गया हो तो पतिके आगमनतक अगर्भवती पतिव्रता सती उपोषण करे । व्रतस्थ रहे । पौष्टिक तथा कामवृद्धिकर आहार न ले । दुधघृतादिका अधिक सेवन न करे । प्याज, लहसून आदि पदाथोंका सेवन वर्ज्यं करे । पर्यंकशयन त्याग दे। तांबूल न खाये। आभूषण न पेहेने । किसी प्रकारका शृंगार न करे । ध्यान, जप, पूजा, पाठ इत्यादि भगवदाराधनमें रहे। जहांतक हो सकें परपुरुषसे बातचित न करे।

पति मृत हो जाने पर ब्राह्मणी स्त्री पतिसहीत सहगमन करे । अब सहगमन कानूनसे बंद किया गया है। पति निर्याणके पश्चात् सती आजकल विधवाधर्मका ही पालन अधिकतर करती हैं । ‘जीवन्तीचेत् त्यक्त केशा तपसा शोधवेद्वपुः । सर्वावस्थासु नारीणां न युक्तं स्यादरक्षणम् ।। ‘ किसी कारणसे भी पतिसहगमन न होकर जीवित रहे तो उसके लिए केशवपनकर विधवाधर्मसे रहनेका और तपसे काया और मन शुद्ध करनेका विधि इस श्लोकमें बताया है । यह व्यासस्मृति के द्वितीयाध्यायका तिरपनवा श्लोक है। इतर स्मृतिकारोंके तरह यहाँ व्यासजीभी ‘किसी अवस्थामें स्त्रीयोंका आरक्षण उचित नहीं होता उनका योग्य पुरुषोंद्वारा रक्षण होना चाहिए, ऐसा अपना मत व्यक्त करते है।’ इस कलियुगमें तो स्त्री वर्गके शीलसंगोपन की अत्यंत अवश्यकता है । दृष्टदुर्जनोंकी विधवाओंके ऊपर अधिकतर निंद्य दृष्टि रहती है।

इस लिए इनके संरक्षणकी चिन्ता और दक्षता थोडीभी कम न होने देना चाहिए । पतिनिधन के पश्चात् स्त्रियोंको परमार्थ ही का साधन करना धर्म है। जबतक पति जीवित है तभीतक स्त्रीयोंका प्रवृत्तिधर्म रहता है।

पतिनिधनसे प्रवृत्तिका ही त्याग हो जाता है। पतिनिधनके पश्चात् प्रवृत्ति निवृत्ति जीवनके इन दो अंगोंमेंसे प्रवृत्तिका एक अंग ही नष्ट हो जाता है। शास्त्रकारोंने जो विधवा धर्म कहे हैं वे उनके निवृत्तिमार्गानुसरणको अनुकूल ही है। विधवाओंके विषयों जो केशवपनका विधि कहा है वह भी एक संन्यास द्योतक ही है। स्त्रीयोंको केशवपन ब्रह्मचर्यपालनमें बहुत कुछ सहायक होनेसे ही दिव्यदृष्टिके स्मृतिकारोंने उसका विधान किया है। इसाइओंमें भी विरक्त ब्रह्मचारिणी केशवपन करती है। ऐसे कुछ तात्विक सिद्धांतको पाकर ही यह प्रथा उनमें भी चली आरही है। केशसेवा ठीक न हुई तो जुरे पड जाती है । तेल लगाना, नहाना, धोना, रोज कंगी फेरना ऐसी बहुतसी उपाधियाँ केश वपनसे दूर हो जाती है। स्त्रीयोंको केशपर बहुत मोह भी रहता है।

रोज दर्पणमे मुख देखकर केशरचना करनी पड़ती है। जिससे सौन्दर्यकी भावना जागृत होकर देहाभिमान बढते जानेका भी संभावना रहती है।

केशवपन के विधिसे घृणाजनक देह के भ्रामक सौन्दर्यको एक अंशसे छुटकारा मिलता है। स्त्रियोंको केशकलाप .. बडा व्यामोह रहनेसे केशवपन देहाभिमान छुडानेका एक साधन ही होता है । केशवपन किसी सज्जन वृद्ध नापित द्वारा ही करनेका ध्यान रखे । केशवपनके समय कोई अभिभावक पास रहे । शक्य होता हो तो स्त्री नापितद्वारा भी केशवपन करनेसे किसी भयकी संभावना नही रहती।

‘अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवंगतानि

विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम् ॥’ (मनु. ५-१५९) ब्राह्मणवर्णप्रसूत

अनेक सहस्त्र बालब्रह्मचारी आजतक अपुनरावृत्त्यात्मक ब्रह्मलोकको जा पोहोंचे । उनको विना पुत्रके ही उत्तम गति प्राप्त हुई। ‘मृते भर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता । स्वर्ग गज्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः ।’ पति निधनके पश्चात् जो साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्यसे रहती है वह उन ब्रह्मचारिओंके समान अपुत्रवती होनेपर भी स्वर्गको जाती है।

भोग की वासना हो तो इंद्रलोक (स्वर्ग) की प्राप्ति होती है। भोगवासनाशून्य तपस्वी ब्रह्मचारिओंको ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है । ‘तपः श्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये शांता विद्वांसो भैक्षचर्या चरन्तः ।

सूर्यद्वारेण ते विरजा भवन्ति यन्नामृतः स पुरुषो यव्ययात्मा ॥

स्वधर्माचरण ही तप कहलाता है और उपासना ही श्रद्धा कहलाती है।

यहाँ का अरण्य शब्द एकांतोपलक्षित माना तो भी कुछ भाव विरुद्ध

नहीं होता । जितेंद्रिय ब्रह्मचारी शान्त कहलाते है । विष्णुरुद्रादि उपासनोपलक्षित आत्मस्वरूप ही सत्य सुख है; तद् व्यतिरिक्त सब इहपर लोकका विषयसुख भ्रामक और असमाधानजनक है इसका निश्चय रखने वाले विद्वान कहलाते हैं। मैक्षचर्यासे अपरिग्रह भी लक्षि- होता है।

एवंगुण विशेषेण विशिष्ट जन सूर्यलोकसे ब्रह्मलोक जा पोहोचते हैं ।

वैकुंठ कैलासादि लोक भी ब्रह्मलोकसे उपलक्षित होते हैं । वहाँ अमृत, पुरुष, अव्ययात्मा शब्दोंसे लक्षित होनेवाली उनकी उपास्य देवता रहती है। ज्ञानाभ्याससे जीवनमुक्त होकर उस लोकके प्रलय कालमें उपास्य देवताके समेत वे सब अपना अपना आकार छोड ब्रह्मरूप हो जाते हैं।

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