जय जय श्रीगुरुमाऊली। तुझ्या कृपेची जिवा साऊली।
तुजविण न कोणी वाली। भवतप्ताया।।१।।
तूं नारी नरासी अभेद। सर्वात्मरूप आनंदकंद।
तुज भजतां विषयछंद। नासोनि जाये।।२।।
जय जय श्रीसद्गुरू। भवाब्दीचे तूं सुदृढ तारू।
मज या पाववी पैलपारु। अनाथनाथा।।३।।
अज्ञाननिशीच्या अंती। निजात्मरूपेची तुझी प्राप्ती।
तूं चित्सुखसूर्य दिनराती। प्रकाशसी स्वप्रभे।।४।।
‘मी’ ‘माझे हे दयाळा। नुरवोनि प्रतिपाळी बाळा।
उपेक्षा करू नेणसी कृपाळा। शरणागताची।।५।।
माझे शरीर, इंद्रिये प्राण। सकळ वासनेसह हें मन।
ससर्व कर्म बुद्धि ही जाण । अर्पियली तुज।।६।।
तूं शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंद। निष्कलंक निर्लेप अभेद।
स्वरूपबोधे नाशिसी खेद। शरणागताचा।।७।।
मज दीना अभय द्यावें। माया निर्मुक्त मज करावे।
भवभय घालवूंनि न्यावें। मज निजधामा।।८।।
बाधा कसलीहि नसावी। सकळ आपदा नष्ट व्हावी।
निर्विघ्नपणेचि गा मज मिळवी। ब्रह्मपदी तुझ्या।।९।।
तूं निराकार ब्रह्म निर्गुण। होसी बा! साकार आणि सगुण।
सद्गुरुरूपे आले कळून। आम्हा सोडविण्या।।१०।।
जय जयाजी दीनदयाळा। घालवी संसारसुखाचा हा चाळा।
मिळवी निजरूपीं निर्मळा। शिघ्रचि आता।।११।।
माया अविद्येहूनि पर। जीवेशी कल्पना विदूर।
सृष्टिस्थितिलयदि वेव्हार। तुजमाजी नसे।।१२।।
गुरुराया! तूं आमचे स्वरूप। अरूप सुखसमुद्र अमूप।
अद्वय तव चिद्रूपी ऐक्यरूप। आम्ही सर्वदा।।१३।।
सदाचारे श्रीगुरुभक्ति युक्त। नित्यपाठ करता होई मुक्त।
तेरा ओव्या या श्रीधरोक्त। भवदुःख विनाशिती।।१४।।
संन्यास सुक्त-
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ।
परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजदे तद्यतयो विशन्ति ॥१॥
वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यास योगाद्यतय शुद्धसत्त्वाः ।
तेब्रह्मलोके तु परान्तकाले परामृतात्परिमुच्यन्ति सर्वे ॥२॥
दह्रं विपापं परमेश्मभूतं यत्पुण्डरीकं पुरमध्यसग्गस्थम् ।
तत्रापि दह्रं गगनं विशोकस्तस्मिन् यदन्तस्तदुपासितव्यम् ॥३॥
योवेदादौ स्वरः प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठितः ।
तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः ॥४॥
आदिनारायणं विष्णूं ब्रह्माणं च वसिष्ठकम्।
श्रीरामं मारुतीं वन्दे रामदासं च श्रीधरम्।।
नमः शान्ताय दिव्याय सत्यधर्मस्वरूपिणे।
स्वानंदामृततृप्ताय श्रीधराय नमो नमः।।