Upasana

मारुती माहात्म्य

विरति सुख जयाचे प्रार्थिती योगि सारे।
सकळ निगम गाती नेति ज्या शब्दद्वारें।
निरवधि सुखराशी सर्व कल्याणमूर्ती।
शिवचि अवतरे हा मारुती ही सुकीर्ती।।१।।

वसत न जयि माया नुद्भवे ज्या स्वरूपी।
अमित सुकरुणेने जो निज ज्ञान वोपी।
सकळ विषयबाधा नासि संसारसिंधु।
नमी निशीदिनि ऐसा मारुती दीनबंधु।।२।।

भवभय विघडी जो मायिका भेडसावी।
निज जन दूरद्रष्टा भेदि दैन्या दुरावी।
सकळ भ्रम निवारी कर्मपाशांसि वारी।
अनुपम बळि गाढा मारुती ब्रह्मचारी।।३।।

अनुदिनी मदनारी चिंती चित्तात भारी।
मज नच कधि मायासंग मी ब्रह्मचारी।
म्हणति मज पति हा पार्वतीचा म्हणोनी।
मम निज कधि लोकीं प्रत्यया मीचि आणी।।४।।

निज अनुपम जे कां ब्रह्मचर्यासि दावी।
उदरिच जननीच्या रुद्र कौपीन लावी।
अमित बळ कळेना बुद्धि ती आकळेना।
निपुण सकळ शास्त्री धैर्यमेरू ढळेना।।५।।

कपिकुळी शिव शोधी अंजनी शुद्ध माता।
तप सुविमल जींचे तोषवी फार चित्ता।
प्रगट रुचिर मोती शुद्ध शक्तींत जैसा।
अतिशय सुखसाठा अंजनीगर्भि तैसा।।६।।

कपिकुळटिळकासी साम्य नोहे चि सृष्टी।
जननसमयि लक्षी सूर्यबिंबासि दृष्टी।
अगणित महिमेचा तो महादेव तो मी।
कवळित रविबिंबा दाविण्या हेचि भूमी।।७।।

शचिपति शशि राहू केतु दिक्पाळ सारे।
सकळ अमर ज्याच्या त्रस्त ते पुच्छ मारे।
उपजत अतिशौर्ये जाहला वज्रदेही।
भडकवि कळिकाळा मुष्टि त्या साम्य नाही।।८।।

उपजत जगि जो का ज्ञानि भूमा विभूती।
कवळि उपजताचि ज्ञानभानू स्वज्ञप्ती।
शचिपति शशि राहू केतु दिक्पाळ जे का।
सकळ अमर विघ्ना येति त्या दे तडाखा।।९।।

कपिकुळ भव नाशी घेउनी राम सेवा।
कपिवपु शिव तेणें आदरी शिष्यभावा।
विषयजनित सौख्ये तृप्ति नोहें कदा ही।
स्वतनू सुचविण्या हे रामसेवेसि वाही।।१०।।

दिसती जगती ऐसें दास स्वामीस्वरूपे।
असति परि जगीं हे सारिखे चि प्रतापे।
नसत अणू असा हा ईश विष्णूसि भेद।
हनुमरघुपति तो एक पिंडे अभेद।।११।।

समपद गुरुशिष्यां ब्रह्मनिर्द्वंद्व जें कां।
तरि हि गुरू सुशिष्या सेव्य ऐसें चि लेखा।
गुरुभजन भवाच्या पार न्यायासि तारूं।
प्रगटवि शिव ऐसें शिष्यभावें चि थोरू।।१२।।

क्षण न लगत ज्यासी विश्व हें संहराया।
अमित अतुळ शक्ती शिष्य तो रामराया।
करुनि दुरित नाशा रामसुग्रीव संख्य।
कपिकुळि शिव साधी जीवब्रह्मैक्य मुख्य।।१३।।

सकळ हि भुवनांचा सद्गुरु हा चि आद्य।
शिव सकळ विरक्तां योगिज्ञान्यांसि वंद्य।
निज गुरुपद दावी शिष्प्रभावें चि राही।
सकल त्यजुनि रामा सारसर्वस्व वाही।।१४।।

अतुल सकळ ज्याचे ज्ञान वैराग्य भक्ती।
अनुपम यश गाजे कीर्ती सामर्थ्य शक्ती।
क्षण न लगत पुच्छे घालि विश्वासि वेढा।
उपटुनि मनि जै ये झेंलि ब्रह्मांड गाढा।।१५।।

सकळ चरित ज्याचें लोककल्याणकारी।
अणु हि न जगि ज्याचा स्वार्थ ठाके विकारी।
अनुपम चि जयाचा त्याग श्रीरामसेवीं।
सकळ सुजन सौख्यां सर्व आयुष्य लावी।।१६।।

बहुप्रिय रघुनाथा अंजनीगर्भरत्न।
सुफलित जगि ज्याने जानकीशोधयत्न।
बहुपरि बळि गाढा नाढळे यासमान।
कुशलमति प्रसंगी सर्व जाणे विधान।।१७।।

दशकरण सुखासी लुब्ध देहाभिमान।
निजसति च सुखाची नेत चोरूनि जाण।
तदुपरि मति ती तो शोधि जैसा विवेक।
दशमुखहृत सीता शोधि तैं रुद्र एक।।१८।।

सबळ कपि मिळाले दीर्घउड्डाण केले।
‘रघुपति’ जय शब्दे मार्ग भेदूनि गेले।
यम नियम विरक्ती मोक्ष इच्छे विवेक।
कपिदलि शिव शोभे जेवि तारामयंक।।१९।।

अति गहन प्रदेशीं पातले वीर जेथें।
मृग खग तृण पाणी वृक्ष कांहीं न तेथे।
सकळ बहु गळाले क्षुतृषाव्याप्त झाले।
विकट असुर येतां त्यांत त्यां संहारीले।।२०।।

‘रघुपति’ जयघोषे विघ्न सारोनि मागे।
विवर बघुनि सारे जात जैं रुद्रमार्गे।
क्षुधित बहु गळाले अंधकारी निजेले।
सकळ कपि स्वपूच्छे बांधुनी वांचवीले।।२१।।

सकळहि जगि जीवां रक्षक चाळकू जो।
जळनिधि करुणेचा त्या पदीं चित्त माजो।
सकळ शुभुगुणे हा पूर्ण विश्वासि थारू।
झडकर वरि यासी जो महाप्राण तारू।।२२।।

कपितनु वरी थोरू रामसेवेसि ईश।
प्रगटवि निजकीर्ती हीन देहीं विशेष।
अघटित घडवी जो हीन औपाधिकांत।
सकळ हि भुवनी जो पूज्य सामर्थ्यवंत।।२३।।

तृतियनयनज्वाळे जाळि ब्रह्मांडगोळ।
दशमुख वधण्यासी लागतो कोण वेळ।
सकळ भुवनवेत्ता त्या न शोधासि यत्न।
परि मति अनुलक्षी वाल्मिकीचा प्रयत्न।।२४।।

निज निरवधि तेजे थोर तो कार्य साधी।
कधि हि न मनि आणी थोर सानी उपाधी।
सकळ जगति कीर्ति हा महादेव ऐसी।
अघटित करण्यासी काय आश्चर्य त्यासी।।२५।।

सकळ विदित झालें कार्य संपाति बोलें।
परि कपिदळि मोठे कार्य सर्वांसि झालें।
जलनिधि मोठा पार जाण्यासि कष्ट।
करिल कपिकुळीं हैं कोण श्रीरामइष्ट।।२६।।

कपि सकळ मिळोनि चिंतिती थोर चित्तीं।
तई विवरुनि सांगे जांबुवान् रुद्रशक्ती।
किति हि जरि विचारे वर्णिले मारुतीसी।
पडत अति अपूरे मारुतीयोग्यतेसी।।२७।।

अति परिचय होतां योग्यता जाणवेना।
जवळि च बळसिंधु रुद्र तो आठवेना।
बहु परि कळवीतां जांबुवान् रुद्रशक्ती।
सकळ कपिवरांसी हर्ष माने सुयुक्ती।।२८।।

सकळ मिळुनि भावें प्रार्थिती मारुतीसी।
अगणित बळराशी शक्त तूं शोधण्यासी।
क्षण न लगत जाई जानकी शोध घेई।
सकळ कपिकुळासी भूषणप्राय होई।।२९।।

स्फुरण चढत आंगीं ऐकुनी दीनवाणी।
कपिकुळअभिमानी कार्य चित्तांत आणी।
चुणुक निज बळाची प्रत्यया यांसि यावी।
म्हणवुनि जगजेठी अल्प आवेश दावी।।३०।।

सकळ कपिदळासी शीघ्र आश्वासुनीया।
कपिवर प्रभु सांगे घेत उड्डाण जाया।
सहज उडुनि जाता जो सुटे अंगवात।
त्रिभुवन उडवी की वाटतें होइ घात।।३१।।

गिरिवरुनि उडाला तो गिरी गुप्त जाला।
दडपुनि बहु भारें भूमिकेमाजि गेला।
अणु चुणुक बळाची दावि आकांत थोर।
सकळ बळ जरी तें वर्णवे कीं विचार?।।३२।।

जय कडकड शब्दे वृक्ष ते नम्र होत।
नमन हनुमपायी दीर्घ दंडें करीत।
सकळदिविज मोक्षा येत केव्हा म्हणोनी।
बहुत चि तप केलें उंच माना करोनी।।३३।।

सकळ रिपु विनाशा रुद्र जाई बघोनी।
मज नच भय आतां राक्षसांचे म्हणोनि।
बहुत चि झिडकारी थोर आवेश येत।
सहज चि मग भूमी थोर तो कंप होत।।३४।।

जलनिधीं बहु हर्षे राक्षसां अंत आला।
म्हणूनि हंसत सांगे मारुती घे यशाला।
बहुत लगबगीने जात आकाशमार्गी।
सकळहि दिविजातें पोंचवी वृत्ती वेगीं।।३५।।

जलनिधिमनि भारी गौरवावा कपीश।
नच दवडुनि संधी साधि जो तो विशेष।
वरिवरि नच संधी येत जैं ये तयीं ती।
बहुत चतुर ते जे साधिती धन्य होती।।३६।।

सगरकुळपतीचा दास हा रामकार्या।
शिव चि हनुम जाई शोधण्या रामभार्या।
करिन जरि ययासी येधवां साह्य कांहीं।
उपकृति उतराई होय थोडी तरी ही।।३७।।

श्रमित गगनपंथे मारुती शीघ्र जातां।
जणु जरि करि सोये होय ते हर्ष चित्ता।
क्षण जरि वरि राहे होय विश्रांति यासी।
म्हणुनि निजजलीं जो प्रार्थि मैनाक त्यासी।।३८।।

सुफळ तरुवरें तो वाढला पुण्यराशी।
कनकमय सुश्रुंगे मंद वातें जळेसी।
गगन क्रमित जाता आडवे विघ्न येत।
म्हणुनि वरिवरी तो रुद्र उड्डाण घेत।।३९।।

किति हि जरी वरी मी वाढतां उंच भारी।
तदुपरि बहु जाई मारुती स्पर्श वारी।
म्हणुनि बहुत खंती वाटली त्या गिरीसी।
जीव धरुनि मनुजवेषा प्रार्थि वातात्मजासी।।४०।।

तव पदकमळाच्या स्पर्शने धन्य होई।
बहुतचि करुणने हे ममातिथ्य होई।
रघुकुलपतिकार्या जासि तूं रामदूत।
तव श्रमहणाने राम तो तुष्ट होत।।४१।।

नदिपति सगरानें जाहला थोर जेवीं।
तव जनककृपेनें वांजलों मी हि तेवीं।
प्रतिकृति उपकारा धर्म तो जाणुनीया।
जलनिधिगिरि मी हा प्रार्थि विश्रांति घ्याया।।४२।।

परिसुनि गिरिवाणी रुद्र बोले तयासि।
श्रम न मज जरा तैं केवि विश्रांति देसी।
म्हणुनि हळुच बोटें स्पर्शिता त्या गिरिसी।
बहुत चि दडपे तैं जाई पूर्व स्थळासी।।४३।।

हळूच जरी कपीचे बोट लागे त्वरेसी।
गिरिवर परि जातो शीघ्र पाताळदेशीं।
जरि वर कपि बैसे पूर्ण विश्रांति घ्याया।
कळत न मग होतें काय तें सांगण्या या।।४४।।

सहज गगनपंथे जात जातां उडोनी।
अति लघु धरि वेगा तैं असें ये घडोनी।
अघटित घटनेचे पूर्ण सामर्थ्य ज्यासी?।
सकळ भुवन हंता रुद्र हे काय त्यासी?।।४५।।

दडपुनि जळि जो कां मागि मैनाक त्यासी।
गगन क्रमित जातां पाहि विक्राळ ऐसी।
बघुनि पथि विचारी मारण्या योग्य नोहे।
पवनजननि ऐसी मत्परीक्षार्थ राहे।।४६।।

दुजि न च सुरसा ही वीक्षि विक्राळ ऐसी।
तिजहुनि बहु मोठा वाढला वीर्य राशी।
पसरुनि मुख वाढे त्याहुनी तो अमूप।
मुखि रिघुनि निघे जै कर्णि घे सूक्ष्म रूप।।४७।।

जय जय जयघोषे मारुतीतें स्तवीत।
वदति दिविज सारे मारुती युवितवंत।
न च कुणि दुसरा हा रुद्र आले कळोन।
अतुळित बळधामा तेवि हा बुद्धिमान।।४८।।

वधुनि न सुरसा ती दावि सामर्थ्यं युक्ति।
अघटित म्हणताती देव ते बुद्धि शक्ती।
समजुनि पितयाची सत्य सापत्न माता।
वधित नच विवेकी तोषवी पितचित्ता।।४९।।

रघुकुलपतिकार्या जाइ कैलासराणा।
बघुनि सकळ सेवा अर्पिती सत्य जाणा।
श्रमहर किरणातें पाडि तैं सूर्य तो ही।
झुळु झुळु झुळु वारा शीकरें मंद वाही।।५०।।

दिसती सकळ लोकां बाळ सुर्यापरिच।
बघुनि मनि तयांच्या थोर आश्चर्य साच।
तरुण रवि असा हा बाळ हा अन्य कोण।
अघटित दिन प्रातर्मंध्यं दोन्ही हि भान।।५१।।

गगनि स्थिर असा जो दीप्त भानू दूजा तो।
चपळ गगन भेदी दक्षिण प्रांति जातो।
बहुत चि मनि शंका ज्योतिषज्ञांसि वाटे।
उघडुनि बहु नेटें मोजतीं फार बोटे।।५२।।

अगणित गणवेना शक्ति काळां थरारी।
दितिकुळ निवटाया जात रुद्रावतारी।
जय जय जयघोषे जै बुभुःकार केला।
मन हि उरुनि मागें रुद्र तो शीघ्र गेला।।५३।।

वसत चळि महा ती सिंहिका राहुमाता।
बहुत गिळित मार्गे नित्य आकाशि जाता।
जरि गगनि असे तो साउली ती गिळीत।
विगत बळ पडे तें तीमुखीं तत्क्षणांत।।५४।।

समजुनि सकळांच्या मृत्यूरूपासि भीम।
उतरूनि वधण्यासी वाढला वीर्यधाम।
पसरि मुख अती ती सिंहीका पाहुनिया।
रिघुनि जठरि येई आंतड्या घेउनिया।।५५।।

सकळ सुरवरांसी जाहलें थोर कृत्य।
कपिवर उपकारें दाटले देव सत्य।
सकळ हि मग तेव्हां वर्षती पुष्पवृष्टी।
निवटिलि अति घोरा जीमुळें लोक कष्टी।।५६।।

क्षण न लगत घेई शीघ्र उड्डाण जाया।
सकळ दिविजसौख्या विश्व धर्म भराया।
अदट सबळ योद्धा रामबाणापरीस।
अविकळ अति वेगें जातसे तो कपीश।।५७।।

सुजन जगत होती कष्टि ज्या ज्या मुळे त्या।
क्षण न लगत सर्वां मारुनी राखि सत्या।
अविरत चि जयाच्या तोडरी ब्रीद गाजे।
सुजन भजन धर्मा रक्षिण्या जो विराजे।।५८।।

वधुनि निमिषमात्रे सिंहिकेसी उडे तो।
अवचट पडलंकेमाजि आला कपि तो।
अदळत पद भूमी शब्द तैं थोर झाला।
हदरुनि धरणी ती वाटलें अंत आला।।५९।।

मिळुनि सकळ येती पाहती मारुतीसी।
धरित लघु स्वरूपा नेति बांधूनि त्यासी।
दिसत अणु परी या पाउली शब्द ऐसा।
वदति सकळ आम्हा हा न वाट अमासा।।६०।।

वदत कपि पहा मी रक्त ना मांस मातें।
चिरशिल जरि माते काय लाभेल तूंतें?।
गिळशिल जरि कांहीं स्वाद चालेल जिव्हा।
गिळिल जरि न मानी मारण्या कष्ट तेव्हां।।६१।।

परिसुनि पसरी तो आपुली काळदाढा।
प्रविशत वदनीं त्या रुद्र तो वीर गाढा।
सरळ रिघुनि पोटी काळिजा हात घाली।
धरणि गडबडा ती लोळुनी कष्टि झाली।।६२।।

गिळूनि बहुत कष्टा पावले या कपीसी।
झडकरी मज द्या गे काहि ओकावयासी।
वमन करित क्रौचा पुच्छ दावी मुखात।
लवकरि मनि योजि युक्ति तो बुद्धिवंत।।६३।।

बहुत लगबगीनें ओढिती पुच्छ नेट।
भर भर भर येई थोर आश्चर्य वाटे।
अतिशय जई नेटें ओढितां, रामदूत।
धरुनि करि तियेच्या काळिजा बाह्य येत।।६४।।

सकळ हि पडलंका पाडुनी ओस रुद्रु।
उरवुनि अतिवृद्धा ती पुसे तो कपिंद्रु।
वद झडकरि लंका कोण देशीं असे ते।
वदत कळस पाहे रत्नकिळे चि तूं ते।।६५।।

गगनि विजयचिन्हें जो असे ताठ साच।
दशमुख मुखरासी गर्व ज्याने सदा च।
सकळ विजयहेतू केतु जो पाडि त्यासी।
अखिल भुवनि मोठें दुःख तैं राक्षसांसी।।६६।।

दिननिशि अति मोठी लंकिनी रक्षि लंका।
तिज जरि कुणि जिंकी जिंकी लंका न शंका।
कपिवर गुज लक्षी जिंकि त्या लंकिनीसी।
कठिण न मज लंका दावि जिंकावयासी।।६७।।

फिरुनि सकळ लंका सूक्ष्मरूपें चि सर्व।
रगडिन मनि आणी राक्षसां फार गर्व।
क्षण न लगत जाई जानकी जेथ राहे।
सकळ बसुनि वृक्षी गुप्त रूपें चि पाहे।।६८।।

अतिशय हटवादी दुष्ट दुर्बुद्धि दैत्य।
बहुपरि छळि शब्दें पाहि तन्मूर्खकृत्य।
अढळ जननि सीता दैत्यशब्द ढळेना।
कुपित मनि परी तो मारुती त्या वधीना।।६९।।

सहज करतळे जो हाणितां मेरु पाडी।
दशवदन वधाया काय तो काळ मोडी।
रघुपति च बधी या वाल्मिकीचे भविष्य।
समजुनि मनि राहे शांत तो रामशिष्य।।७०।।

अगणित बळ ज्याचे काळ धाक थरारी।
पवनतनुज तो हा पूर्ण रुद्रावतारी।
घडि न लगत जो कां नासि ब्रह्मांडगोळ।
सहज सकळ दैत्या मारण्या कोण वेळ।।७१।।

विवरुनि मनि सारें शांतवायासि सीता।
मधुरतम सुकंठे गात श्रीरामगाथा।
करूनि सकळ मुग्धा राक्षसी दुर्विचारा।
सुमति जनकजेसी देत संदेश सारा।।७२।।

उतरुनि धरणी ती मारुती ह्रस्व रूपें।
नमित जनकबाळा सौम्यमुद्रें अमूपे।
मनि दृढ परि शंका जानकी दाखवीत।
निववुनि मग तक्रा भाजल्या जीभ पीत।।७३।।

वरि वरि भय दावी प्रश्न घालीं अनेक।
दृढ परि दृढवाया आणखी मानसीक।
हृदय सकळिकांचें एक जें बिबलें तें।
कुटिल सरळ दावी भावना जागवीते।।७४।।

निज सुत चि मनि ये पाहतां मारुतीसी।
अणु नच मनि शंका येत त्या जानकीसी।
जरि हृदयि असे तो पेटला शुद्ध भाव।
परहृदय पुढें त्या तत्क्षणी होत भाव।।७५।।

सकळ हि वनिता ज्या होति मातेसमान।
बघत चि मनि ये पुत्रवात्सल्य जाण।
अणु न च मनि शंका येत कोण्या स्त्रियेसी।
असत मनी जसें तें भासतें अन्य देशी।।७६।।

शिव अति विनयानें जानकी तोषवाया।
रघुपतिकरमुद्रा ठेवुनी वंदि पायां।
दशरथसुत रामें खूण ती दावियेली।
कथि कपि गुज रामें वल्कलें नेसवीलीं।।७७।।

परिसुनि शिववाणी तोषली विश्वमाता।
तदुपरि विनवी ती आण सौमित्रभ्राता।
करि मम सुटका तूं मारुती दीन मी ही।
छळि बहु परि ऐसा दुष्ट हा दैत्य पाही।।७८।।

मनि बहु जननीच्या ऱ्हऱ्व रूपा बघोनी।
अति लघु कपि ऐसा ये असें आकळोनी।
निजबल समजाया वाढला उंच कोटी।
कथि क्षण बस स्कंधी होय श्रीरामभेटी।।७९।।

क्षण न लगत माते संहरी रावणातें।
सकळ वधिन दुष्टां शीघ्र एका चि घातें।
रघुपति परि मातें दे न आज्ञा तशी ती।
कथि शिव अनुलक्षी राम वाल्मीकरीती।।८०।।

सबळ कपि बघोनी तुष्टली जानकी ती।
वदत त्वरित नाथा आण ते सोडवीती।
समय बहु न मोंडी ऐकतां मातृवाणी।
विवरि मनि कपी तो युक्ति जो शक्तिखाणी।।८१।।

वधुनि बहुत दैत्यां नासुनीयां अशोका।
तदुपरि मग जावें जाळूनी सर्व लंका।
जरि निमुटपणे मी जाइं तें त्या न ताप।
अघटित समजावा रामभक्तप्रताप।।८२।।

शिवमनि शिकवावे काहिसे रावणाला।
क्षुधित मज न बोले जाववे दे भुकेला।
पतित फळचि वत्सा खाइ आज्ञापि सीता।
जननि बहु कृपाळु तैं वदे रामकांता।।८३।।

मतिवर मग पुच्छ शीघ्र आज्ञापि बा रे।
उपटुनि मग झोडी वृक्ष जे नम्र भारें।
अमुप चि फळराशी तें पडे भूवरी या।
जननिवचन सारें पाळिलें होय खाया।।८४।।

विवरी मनि वनासी नांव कां या अशोक।
वन जरि न च नासी राक्षसा केवि शोक।
समजुनि बळ सारें राक्षसा या चि योगें।
असुरकुळ अशोका हेतु त्या नाशि वेगें।।८५।।

बहुत सुकृत पुण्यें पूर्वजन्मांतरीची।
फळित तरु स्वरूपें शक्ति ती राक्षसांची।
किति हि जरि करीती दुष्कृता त्या न शोक।
शिव मनि समजे तो हेत या हा चि एक।।८६।।

परधन परनारी हारकू दुष्ट देहीं।
परि सुख बहु भोगी भासतो काळ काहीं।
सुकृत बहु तयाचें क्षीण पावे तसें तें।
दिसुनि बहुत मोठा दीप पावे लयाते।।८७।।

सकळ सुकृत साठा दुष्कृते नाश पावे।
सकळ सुकृत होता नष्ट काळासि फावे।
सकळ भुवन नाशा नेमिला रुद्र जो कां।
दितिसुतकुळनाशा तोचि हा सिद्ध देखा।।८८।।

रघुकुलपति माझा सद्गुरू मोक्षदानी।
सकळ भुवन माता जानकी रामराणी।
मम गुरू गुरुपत्नी ज्यामुळे कष्टी झाली।
कुणीही मग असो तो त्यांसि ना कोणी वाली।।८९।।

सकळ असुर माते शंकरा सेविताती।
कधि न च भयचिंता कोणि त्या जिंकिताती।
निजभजन सुपुण्ये मत्त हे दुष्ट दैत्य।
समजुनि शिव रागे साधि तन्नाशकृत्य।।९०।।

परवधुअपहारें सर्व सत्कृत्य लोपे।
परवधुअपहारें देव तो सत्य कोपे।
परवधुअपहारें नष्ट साम्राज्य होये।
परवधुअपहारें शक्ति ती सर्व जाये।।९१।।

रघुकुलपतिपत्नी जानकी दुष्ट आणी।
सकळ दुरित कृत्या शीग ही रुद्र मानी।
म्हणवुनि अति कोपें सर्व सत्कर्म वृक्ष।
निवटुनि सुफळातें भक्षि घे रामपक्ष।।९२।।

भुवनदहनकाळी चेंतवी अग्नि जो तो।
सहज जि बहु थोडा रुद्र तैं चेतवीतो।
गुज कथि अनळासी अल्प आहार घेई।
पुरि दहन सुकाळी काहिसें भक्ष होई।।९३।।

अगणित फळ राशी केवढी मोजवेंना।
कळत न कधि घेई खात तें आकळेना।
गप गप गप खाई वेग अद्भुत साचा।
करि अवचट लीला दे बुभुःकार वाचा।।९४।।

मिचकवि बहु डोळे खाजवी कूस बोटें।
विचकवि बहु दांतां वांकुल्या दावि नेटे।
मधुनि मधुनि हर्षे घे उडी सानसीच।
बहुतचि कपिचेष्टा चालवी हर्ष साच।।९५।।

बघुनि बहुत कोपें दैत्य तें धांवताती।
विविध विकट योद्धे शस्त्र अस्त्रां धरीती।
गिरिवरि जलधारा तेवि शस्त्रास्त्रपात।
कपिवरि परि त्यासी होय कांहीं न घात।।९६।।

अतिशय मृदु पुष्पें फेंकुनी मार द्यावा।
घडत कपिसि तैसें त्या न त्याचा सुगावा।
वियत न गणुनि शरमुष्टी खड्ग घातासि कांहीं।
मिचकवि नयनातें खात, कोणा न पाही।।९७।।

सकळ हि फळराशी खाउनी फस्त केली।
अनल जठरकोशीं जो तया तृप्ति झाली।
प्रथम करि कपींद्र शांति झाल्या भुकेची।
तदुपरि मग चिंती शांति रक्षोगणांची।।९८।।

सकळ हि मग तेव्हां येउनी भूतपंक्ती।
अतिशय विनयाने सांगती सर्व शक्ती।
शोक बहुत दिवस झाले खाद्य आम्हां न भेटे।
पर तव बहुतचि आशा आज आम्हांसि वाटे।।९९।।

झडकरि वधि दैत्यां दे बहू भोजनातें।
बहुत चि सुख खाया होय या राक्षसांतें।
चुरस अति मनींची साधण्या वाट झाली।
रघुपतिकरुणेनें आज ती वेळ आली।।१००।।

सकळ बळसमुद्रा मारुती दीनबंधु।
झडकरी वधि दुष्टा त्वत्पदाब्जासि वंदु।
पिउ कधि मनि रक्ता खाऊ मांसा ययांच्या।
कधि बघु बहु माळा कंठि या आंतड्यांच्या।।१०१।।

परिसुनि सकळांच्या दीन भाकेसि रुद्र।
निवटिन क्षणी बोले साक्षि या रामभद्र।
क्षण न लगत आता वेगि कार्यासि लागे।
स्तवित गण बहू तै ईश्वरासी प्रसंगे।।१०२।।

अतिशय घनदाटी दाटली व्योमपृष्टी।
अनुदिनि अति तागे जाहले देव कष्टी।
म्हणुनि बघत हर्षे देव ही कौतुकाते।
पवनतनुज आता संहरी राक्षसातें।।१०३।।

रघुकुलपतीचा जो सेवकू शक्तीमंतू।
निज बळ अवलोकी शूर लांगूल केतू।
म्हणत कपि स्वपुच्छा चुंबुनी कार्य आता।
अघटित घडवो तू साह्य हो दुष्टघाता।।१०४।।

वनकर अवघेची त्रस्त ते पुच्छमारे।
पळत जिथ तिथे ते येत वेष्टीत सारे।
सबळ दशवरी ते चार संख्या सहस्र।
कवळुनि उदधी तो भार फेकी अजस्र।।१०५।।

दशमुख मग धाडी वेगि ऐंशी हजार।
बहुत सबळ योद्धे धीर ज्या शक्ती फार।
कितिक निज सुपुच्छे मारुनी मुक्त केले।
गिरि शिरि कितीकांच्या घालुनी शांतवीले।।१०६।।

दशशिर मग प्रेरी जंबुमाळी सभारे।
गरजत बहु येई मारि बाणांसि तोरे।
परिघ शिरि तयांच्या घालुनी मारियेलें।
अगणित दळ ते तै पुच्छ घातेचि मेले।।१०७।।

अतिशय मनि खोचे रावणू ऐकुनीया।
मग विवरूनि प्रेरी मंत्रिपुत्रांसि जाया।
निज करतळ घाते मुष्टियोगे वनारी।
उदर करनखाग्रे मंत्रिपुत्रा विदारी।।१०८।।

मग कपिवरि धाडी पंच सेनानि शूर।
परिसुनि पडले ते धाडि पुत्रा सभार।
सबळ कपिनिघाते मृत्यू अक्षासि येता।
परिसुनि अति दुःखे पाठवी इंद्रजीता।।१०९।।

बहुत कपटयुद्धी दक्ष जो इंद्रजीतू।
करि बहुत परी तो नायके पुच्छकेतू।
न चलत अभिचारु शस्त्र अस्त्र प्रयोग।
पळत अधिक धाके पुच्छ पाठी सवेग।।११०।।

अतिशय करुणेने आवरी पुच्छराया।
मग बहुत चि धैर्ये धाव घेई लपाया।
क्षण न लगत दुष्टा मारण्या या जरी तो।
अनुचित मज ब्रह्मा या जगी मिथ्य होतो।।१११।।

मज हि अनलयोगे जाळणे साच लंका।
करि विनति हि ब्रह्मा काहि माते न शंका।
तदुपरि मग रुद्रु सांपडे ब्रह्मपाशा।
दिसत कपि न येई काळ हा सर्वनाशा।।११२।।

अतिशय मनि कोपू पोटि ना तो समाये।
कर कर कर कोपे रावण दांत खाये।
अवचट करखड्गे घाव हाणीत रुद्रा।
अति पुळचट बोले धाव तो रुद्र क्षुद्रा।।११३।।

तव दशमुखनाशा येत जो रावणारी।
पवनसुत तयाचा दास मी निर्विकारी।
मज न कपट चाले पाश शस्त्रास्त्र बाधे।
मरण न मज दुष्टा मारणे काम साधे।।११४।।

सबळ कपि वधाया पुच्छ ते दग्ध व्हावे।
म्हणूनि करित यत्ना राक्षसू सर्व भावे।
घृत सकळहि झाले तेल आधी च नाही।
गृहिणिधृत गृहींचे आणिले वस्त्र तेही।।११५।।

रघुकुलपतिपत्नी येत जै नाव कानी।
कुशलमति तई ते पुच्छ घे आंखडूनी।
दशमुख चि स्वये जै येत तो फुंकण्याला।
अवचट भडका तैं तोंड तें जाळण्याला।।११६।।

अनिल अनल दोघा पितृपुत्रासी मेळ।
अनिलसुत तिजा हा मारुती रुद्र काळ।
सकळ दिविज साह्या राक्षसांतासि जेव्हा।
दितिसुतकुलनाशा काळ हा कोण तेव्हा।।११७।।

सकळ भुवन लंका दुष्ट संसर्ग योगे।
बहुत अशुचि झाला देह मानी प्रसंगें।
निज अशुचि शरीरा त्यागुनी अग्निमाजी।
कनकमय शरीरा अंजनेयासि राजी।।११८।।

धड धड धड ज्वाळा जात आकाशवाटे।
सकळ भुवन लंका ग्रासतो अग्न वाटे।
सकळ भुवन दाहो मांग संपादुनीया।
उडुनि कपि समुद्री शांतवी लांगुळा या।।११९।।

पुनरपि कपि जे ये वंदिण्या रामकांता।
जननि सुमणि ब्रह्मा पत्र तै देति जाता।
क्षण न लगत रुद्रु वानरा सर्व भेटे।
जय जय जयघोषे सर्व आकाश दाटे।।१२०।।

रघुपतीपदपद्मा वंदुनी पत्र देत।
सकळ हि बहु हर्षे मुग्ध सौख्यांबुधीत।
कपिकुळटिळकाची वर्णिली दिव्य लीला।
श्रवणपठणयोगे दुःख जाये लयाला।।१२१।।

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