।।श्रीगणेश।।
जय जय जी गजानना। माया गजासि पंचानना।
जया पाहतां मायाभाना। उरी नाही।।१।।
चतुर्दश भुवनांचे लंबोदर। उदरी सांठविले स्थिरचर।
वेगळेपणें येथ मी पामर। स्तवावे कायी।।२।।
समर्थकृपे तुझे रूप। रूप तव तें अरूप।
दासबोधे स्वस्वरूप। प्राणिमात्रांचे।।३।।
आतां ऐक्यपणे नमन। मौनेंचि स्तवन।
स्वस्वरूपीं अभिन्न। श्रीसमर्थकृपेचेनि बळे।।४।।
।।श्रीरामप्रभु।।
श्रीराम आनंदघन। पाहतां निवती लोचन।
सुखाचें अमित संतर्पण। क्षणोक्षणी होतसे।।१।।
जगाचें जें जीवन। सर्व सौख्याचें निधान।
सर्व जीवांचे उगमस्थान। तो हा राम पाहिला।।२।।
मीपणाचे मोठे बंड। परी जाहलें दुखंड।
मावळलेसे थोतांड। अविद्येचे आवघे।।३।।
अवघा एकचि कोंदला। श्रीराम स्वयें झाला।
श्रीदासकृपें दासाला। निजमूळ लाधले।।५।।
।।श्रीहनमंत।।
जय जय जी हनुमंता। ज्ञानवैराग्ये समर्था।
दासा मुक्ती गुरुनाथा। तुझेंनि कृपे।।१।।
संसारमोह अनर्थ। नासोनि दाविसी परमार्थ।
जेणें योगे कृतार्थ। झालो आम्ही॥२।।
नांवें तूं प्राणनाथ। ‘प्राणस्य प्राणः’ हा श्रुत्यर्थ।
येणें योगें तूं ब्रह्म यथार्थ। श्रुत्यन्वादे।।३।।
झाले हे शास्त्रप्रमाण। आत्मानुभवे अहं ब्रह्म जाण।
गुरुप्रचितीने ऐशीच खूण। श्रीमत् दासबोधी।।४।।
त्रिविध प्रचीतीने तूंचि न आन। ‘एकं ब्रह्म’ हे प्रमाण।
‘नेह नानास्ति’ हे वचन। प्रत्यया आले।।५।।
चिदानंदे तूंचि पूर्ण। ‘पूर्णात् पूर्ण’ हेहि पूर्ण।
पूर्णाचा विचार करोनि पूर्ण। पूर्णरूपेचि राहिलो।।५।।
आता ऐक्याचें नमन। मौनेचि स्तवन।
या भावाचेंहि विसर्जन। निजानंदी।।७।।
।।श्रीजगदंबा।।
जय जय जगदंब जगदेश्वरी।मुनिजन मानसविहारी।
योगिजनांचे अंतरी। ध्यानरूपे।।१।।
संपूर्ण जी चित्कळा। नातळे माया अविद्येच्या विटाळा।
स्वस्वरूपचा सोहळा। अखंड जिसी।।२।।
भक्तांसि मोक्षदात्री। भावनेची भोक्त्री।
जियेच्या दर्शनमात्री। सुटले बहू।।३।।
अंतरीची जीवन ज्योती। ती म्यां वंदिली पार्वती।
ज्ञानवैराग्यदात्री। दासानुदासा।।४।।
।।श्रीसमर्थ।।
वंदिले श्रीगुरु समर्थ। जे कां चुकविती अनर्थ।
दावोनिया परमार्थ। स्वभक्तांसि।।१।।
वेळोवेळी अवतरती। स्वभक्तासी रक्षिती।
पुन्हा निजात्मैक्यस्थिती। परब्रह्मी जे।।२।।
ऐसें जे सच्चिद्घन। मुनिजनांचे अनुसंधान।
तयांच्या पायी नमन। अनन्यभावें सर्वदा।।३।।
।।भगवान श्रीधरस्वामी महाराज।।
१.
निर्गुण निर्विकार निरालंब। परात्पर परब्रह्म स्वयंभ।
प्रत्यगात्मा सच्चिदानंदपूर्ण। तो हा श्रीधर सद्गुरु॥१॥
जें निरावयव अधिष्ठान परिपूर्ण। आनंदघन एकेलेचि एक संपूर्ण।
साकारलें धर्मसंरक्षणा लागुन। स्वानंदैक्य न सोडतां॥२॥
शांत दांत करुणायतन। तेजस्वी तपोमूर्ती ज्ञानघन।
श्रीसमर्थे ‘भगवान्’ नामें संबोधून। प्रगट केले भूमंडळी॥३॥
तो हा आमुचा आत्माराम सद्गुरु। भगवान श्रीधरस्वामी यतीवरू।
जयाच्या कृपाप्रसादें पैलपारूं। आम्ही पावलों भवसागरी॥४॥
मायाकार्य जे भवभ्रम अज्ञान। तुज जरी वाटे जावें निरसून।
तरी सद्गुरु श्रीधरचरणी लीन। होई मीपण त्यागुनी॥५॥
२.
अव्यवहार्य परब्रह्म श्रीधर। कर्ता तन्माया जो ईश्वर।
कार्य तो हा देह साचार। करी विचार ‘मी कोण’॥१॥
शक्ति-शक्तिमान् हा अभेद। कदा स्वतंत्र शक्ति नोहे सिद्ध।
कार्य तें सहजचि अशाश्वत। शोध करी शाश्वत तो कोण॥२॥
नाम शब्द होय व्यर्थ। परी तो नामी असे शाश्वत।
‘मी’ या नामीं लक्षित। उरला अर्थ तो कोणता॥३॥
परात्पर सच्चिदानंदघन। शब्दातीत अर्थ संपूर्ण।
तो हा आत्माराम संपूर्ण। श्रीधरस्वामी सद्गुरु॥४॥